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धर्म स्वरूप, पौरुषेय अपौरुषेय वचन निर्णय
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १० से १२ पूर्वोक्त महादोषों के कारण उन्हें अब्रह्मचारी (आत्मा से बाह्य पुद्गलों में रमण करने वाला-पुद्गलानंदी) बतलाया है।। अंत में अगुरुत्व का एक असाधारण कारण बताया है-'मिथ्योपदेशाः' अगुरु का उपदेश शुद्ध धर्म से युक्त नहीं होता; उसमें हिंसा, कामना, असत्य, मद्य या नशीली चीजों के सेवन आदि के पोषक वचन अधिक होते हैं। वह उपदेश आप्तपुरुषों के उपदेश से रहित होता है, इसीलिए उसे धर्मोपदेश नहीं कहा जा सकता ।।९।।
यहां प्रश्न होता है कि धर्मोपदेश देने से ही उनका गुरुत्व सिद्ध हो गया, फिर उनमें निष्परिग्रहत्व आदि गुणों को खोजने की क्या आवश्यकता रह जाती है? इसी के उत्तर में कहते हैं
।६६। परिग्रहाऽरम्भमग्नास्तारयेयुः कथं परान्? । स्वयं दरिद्रो न परमीश्वरीकर्तुमीश्वरः ॥१०॥ अर्थ :- स्वयं परिग्रह और आरंभ में गले तक डूबा हुआ, दूसरों को कैसे तार सकता है? जो स्वयं दरिद्र हो,
. वह दूसरे को धनाढ्य कैसे बना सकता है? ॥१०॥ व्याख्या :- स्त्री-पुत्र, धन-धान्य, जमीन-जायदाद आदि के परिग्रह के कारण जीवहिंसा आदि अनेक आरंभो में डूबा रहने वाला, सभी पदार्थों को पाने की लालसा करने वाला एवं सर्वभोजी, होने से स्वयं ही संसारसमुद्र में डूबा हुआ है तो फिर दूसरों को भवसमुद्र से पार करने में कैसे समर्थ हो सकता है? इसे ही साधक दृष्टांत द्वारा समझाते हैं- 'जो स्वयं कंगाल हो, वह दूसरों को श्रीमान् कैसे बना सकता है?' ।।१०।।
अब धर्म का लक्षण बताते हैं।६७। दुर्गतिप्रपतत्प्राणिधारणाद् धर्म उच्यते । संयमादिर्दशविधः, सर्वज्ञोक्तो विमुक्तये ॥११॥ अर्थ :- दुर्गति में गिरते हुए जीवों को धारण-रक्षण करने के कारण ही उसे 'धर्म' कहते हैं। वह संयम आदि
दश प्रकार का है, सर्वज्ञों द्वारा कथित है और मोक्ष के लिए है ।।११।। व्याख्या :- नरकगति और तिर्यंचगति ये दोनों दुर्गति है। दुर्गति में गिरते हुए जीवों को धारण करके रखने वालाअर्थात् दुर्गति से बचाने वाला धर्म कहलाता है। यही धर्मशब्द का (व्युत्पत्ति से) अर्थ होता है, यही धर्म का लक्षण है। अथवा प्रकारांतर से निरुक्तार्थ यह भी होता है कि जो सद्गति, देवगति, मनुष्यगति या मोक्ष में जीवों को धारणस्थापित करे वह धर्म है। पूर्वाचार्यों ने भी कहा है-'यह दुर्गति में गिरते हुए जीवों को धारण करता है और शुभ स्थान में स्थापित करता है, इसी कारण इसे धर्म कहा जाता है।' वह संयमादि दस प्रकार का धर्म सर्वज्ञ कथित होने से मुक्ति के प्रयोजन को सिद्ध करता है। इस संबंध में हम आगे बतायेंगे। दूसरे देवों के असर्वज्ञ होने के कारण उनका कथन प्रमाणभूत नहीं माना जा सकता।
__ यहां प्रतिपक्षी की यह शंका हो सकती है कि सर्वज्ञ के कहे हुए तो कोई वचन है ही नहीं; क्योंकि वेद तो नित्य अपौरुषेय (पुरुष-कर्तृत्व से रहित) है, इसीलिए उसके वचन तो किसी पुरुष के द्वारा कहे हुए है ही नहीं। अतः वेदवाक्य से ही तत्त्व का निर्णय कर लिया जायेगा अथवा धर्म का स्वरूप जान लिया जायेगा, फिर सर्वज्ञोक्त धर्म या तत्त्वनिर्णय की क्या जरूरत है? कहा भी है-'नोदना (वेद-प्रेरणा) से हर व्यक्ति भूत, भविष्य और वर्तमान, स्थूल
और सक्ष्म, दर और निकट के पदार्थों को जान सकेगा: केवल इंद्रियाँ तो कछ भी नहीं जान सकतीं। (शाबर भा. १. १-२) वेद अपौरुषेय होने से उसकी प्रेरणा (नोदना) में पुरुष-संबंधी किसी भी दोष के प्रवेश की संभावना नहीं है। इसलिए वही प्रमाणभूत होना चाहिए। न्यायशास्त्र में भी कहा है-शब्द वक्ता के अधीन होता है; वक्ता में दोष की संभावना है। जब गुणवान वक्ता में भी किसी समय निर्दोषता का अभाव हो सकता है, तब गुणों से रहित वक्ता के शब्द में दोषों के आने (संक्रमण) की संभावना तो अवश्यमेव है। अथवा किसी वचन में दोष है या नहीं; इस प्रकार की शंका पुरुष के वचनों में ही हो सकती है, जिसका वक्ता कोई पुरुष ही न हो, वहां वक्ता के अभाव में आश्रय के बिना दोष हो ही नहीं सकते। (मी. श्लोक. वा. १-१-२-६२/६३) इसलिए अपौरुषेय वेद के वचनों में कर्तत्व का अभाव होने, किसी दोष के होने की कथमपि शंका नहीं हो सकती।।११।।
उक्त शंका का समाधान करते हुए कहते हैं६८। अपौरुषेयं वचनमसम्भवि भवेद्यदि । न प्रमाणं भवेद् वाचां ह्याप्ताधीना प्रमाणता ॥१२॥
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