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सामान्य देव द्वारा मुक्ति का अभाव
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ६ से ७ (६२) ये स्त्री-शस्त्राक्षसूत्रादि रागाद्यककलङ्किता । निग्रहानुग्रहपरास्ते देवाः स्युर्न मुक्तये ॥६।। अर्थ :- जो देव स्त्री, शस्त्र, जपमाला आदि रागादि सूचक चिह्नों से दूषित हैं, तथा शाप और वरदान देने वाले
हैं, ऐसे देवों की उपासना आदि मुक्ति का प्रयोजन सिद्ध नहीं करती ।।६।। व्याख्या :- स्त्री, कामिनी, त्रिशूल आदि अस्त्र-शस्त्र, जपमाला, डमरू आदि वस्तुओं को धारण करने वाले देव इनसे तांडवनृत्य, संहार, अट्टहास या आडंबर करके लोकपूजित बन जाते हैं, लेकिन सच कहा जाय तो ये स्त्री, शस्त्र, जपमाला आदि सब चिह्न उनके राग, द्वेष, मोह आदि के सूचक है। स्त्री राग का कारण है, यदि वह स्वयं विरागी है तो फिर स्त्री रखने का क्या प्रयोजन? संसार में साधारण मनुष्य भी स्त्री रखता है और वे देव भी स्त्री रखते हैं, तो फिर दोनों में अंतर क्या रहता है? शस्त्र द्वेष का चिह्न है, वह भी किसी शत्रु या विरोधी के भय से अथवा अपनी दुर्बलता से रखा जाता है। जपमाला अपनी अज्ञता की निशानी है। माला अपने से किसी महान् व्यक्ति की फिराई जाती है। अतः तथाकथित देवों का भी उनसे बढ़कर कोई महान् देव होना चाहिए। जो वीतरागदेव होते हैं, राग-मोह रहित होने से | उनके स्त्री का संग नहीं होता; द्वेष रहित होने से विस्मृति की सूचक अथवा महत्पूजा के चिह्न रूप में जपमाला भी नहीं होती। राग, द्वेष और मोह से ही आत्मा में समस्त दोष आकर जमा हो जाते हैं। समस्त दोषों के मूल ये तीन ही हैं। वध, बंधन, शाप या प्रहार रूप निग्रह एवं पापों की सजा माफ करना व वरदानादि रूप अनुग्रह इन दोनों में तत्पर रहना भी राग-द्वेष के कारण होता है। अगर परमदेव भी इस प्रकार के हों तो वे मुक्ति के कारणभूत नहीं हो सकते। वैसे तो संसार में भूत, प्रेत, पिशाच आदि क्रीड़ा करने वालों में भी देवत्व माना जाता है, उनके उस देवत्व को मानने को कोई रोक भी नहीं सकता ॥६॥
उन सामान्य देवों में मुक्ति के कारण का अभाव सूचित करते हैं।६३। नाटयाट्टहाससङ्गीताद्युपप्लवविसंस्थुलाः । लम्भयेयुः पदं शान्तं, प्रपन्नान् प्राणिनः कथम्? ॥७॥ अर्थ :- जो देव नाटक, अट्टहास, संगीत आदि राग (मोह)-वर्द्धक कार्यों में अस्थिर चित्त वाले हैं, वे अपनी
शरण में आये हुए जीवों को शांत पद रूपी मुक्ति स्थान कैसे प्रास करायेंगे? ॥७॥ व्याख्या :- यहां सकल सांसारिक प्रपंचजाल से रहित मुक्ति, केवलज्ञान आदि शब्दों से समझा जा सके, ऐसा शांत मोक्षपद, नाटक अट्टहास, संगीत आदि सांसारिक उपाधि से डांवाडोल चित्तवृत्ति वाले देव अपने आश्रय में आये हुए भक्त वर्ग को कैसे प्राप्त करा सकते हैं? एरंड का पेड़ कल्पवृक्ष की समानता नहीं कर सकता। इसलिए राग, द्वेष और मोह के दोष से रहित एकमात्र वीतरागदेव ही मुक्ति को प्राप्त कराने वाले हो सकते हैं; अनेक दोषों से दूषित अन्य देव नहीं। इसके लिए यहां कई उपयोगी श्लोक (श्लोकार्थ) प्रस्तुत करते है
'गलत एवं अयोग्य प्रवृत्तियाँ करने वाले होने से सामान्य जन से निम्न भूमिका के रुद्र, विरंचि एवं माधव सर्वज्ञ या वीतराग कैसे हो सकते हैं? स्त्री का संग काम का सूचक है, हथियार का ग्रहण द्वेष का द्योतक है। जपमाला अज्ञान का सूचक है और कमंडलु अशौच का द्योतक है। रुद्र के रुद्राणी, बृहस्पति के तारा, विरंचि के सावित्री, पुंडरीकाक्ष के पद्मालया, इंद्र के शची, सूर्य के रन्नादेवी, चंद्र के दक्षपुत्री रोहिणी, अग्नि के स्वाहा, कामदेव के रति, यमदेव के धूमोर्णा
स्त्री है। इस तरह देवों के साथ स्त्रियों का संग प्रकट है और प्रत्येक के पास शस्त्र भी है. तथा प्रत्येक के पास मोह-विलास होने से उनके देवाधिदेवत्व में संदेह है ही। अतः निःसंदेह कहा जा सकता है कि देवाधिदेव पद का स्पर्श उन्होंने नहीं किया।
अज्ञानता पूर्वक सारे संसार को शून्य बतलाने वाले सुगत में भी देवत्व घटित नहीं होता। शून्यत्व प्रमाण से असिद्ध होने के बाद शून्यवाद का कथन करना वृथा है और प्रमाण होने पर भी प्रमाण के बिना (प्रमाण के भी शून्य हो जाने पर) परपक्ष की भी शून्यसिद्धि नहीं हो सकती; तो फिर अपने पक्ष की सिद्धि किस तरह हो सकती है? सुगत सर्वपदार्थों में क्षणिकत्व मानते हैं तो साधक का अपनी क्रिया के फल के साथ संबंध कैसे जुड़ सकता है? क्षणिकवादियों का वध करने वाला भी फिर उस हिंसा का कारण कैसे होगा? इसी प्रकार क्षणिकवादी की स्मृति भी उसे कैसे पहिचान पायेगी या कैसे व्यवहार कर सकेगी? कृमियों आदि जीवों से भरा हुआ अपना शरीर व्याघ्र को सौंप देना; यह भी देय
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