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देवादि का स्वरुप
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ३ से ४ ४. सांशयिक - देव, गुरु और धर्म के संबंध में व्यक्ति की संशय स्थिति बनी रहना कि 'यह सत्य है या वह
सत्य है?' वहां, सांशयिक मिथ्यात्व होता है। ५. अनाभोगिक - जैसे एकेन्द्रियादि जीव, विचार से शून्य और विशेषज्ञान से रहित होते हैं, वैसे ही व्यक्ति भी
जब विचार जड़ हो जाता है सम्यक्त्व या मिथ्यात्व के बारे में कुछ भी सोचता नहीं है, तब वहां अनाभोगिक मिथ्यात्व होता है। इस तरह यह पांच प्रकार का मिथ्यात्व है। (पंच सं.
१८६) मिथ्यात्व के संबंध में कुछ श्लोक यहाँ प्रस्तुत किये गये हैं-'मिथ्यात्व महारोग है, मिथ्यात्व महान् अंधकार है, मिथ्यात्व जीव का महाशत्रु है; मिथ्यात्व महाविष है। रोग, अंधकार और विष तो जिंदगी में एकबार ही दुःख देते हैं, परंतु मिथ्यात्वरोग की चिकित्सा न की जाय तो यह हजारों लाखों, करोडों जन्मों तक पीड़ा देता रहता है। गाढ़-मिथ्यात्व से जिसका चित्त घिरा रहता है, वह जीव, तत्त्व अतत्त्व का भेद नहीं जानता। जो जन्म से अंधा हो, वह भला किसी भी वस्तु की मनोहरता या अमनोहरता कैसे जान सकता है? ।।३।।
अब देव और अदेव, गुरु और अगुरु तथा धर्म और अधर्म का लक्षण बताते हुए सर्व प्रथम देव का स्वरूप बताते हैं।६०। सर्वज्ञो जितरागादि-दोषस्त्रैलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ॥४॥ अर्थ :- सर्वभाव को जानने वाले, राग-द्वेषादि दोषों को जीतने वाले, तीन लोक के पूजनीय और पदार्थ के यथार्थ |
स्वरूप को कहने वाले देव अर्हन् अथवा परमेश्वर कहलाते हैं ॥४॥ व्याख्या :- देव में देवतत्त्व के लिए चार अतिशय आवश्यक बताये हैं। वे इस प्रकार हैं-१. ज्ञानातिशय, २. अपायापगमातिशय, ३. पूजातिशय और ४. वचनातिशय। देवाधिदेव अर्हन् का पहला विशेषण 'सर्वज्ञ' बताकर, समग्र जीव-अजीवादि तत्त्व को जानने वाले होने से उनका ज्ञानातिशय सूचित किया है। परंतु उनका ज्ञान अपने रचे हुए शास्त्र में परस्पर-विरुद्ध कथन वाले अन्य दार्शनिकों का-सा नहीं है। अन्य दार्शनिकों का कहना है-'संसार की सभी वस्तुएँ। देखो, चाहे न देखो, ईष्ट तत्त्व को देखो। कीड़ों के दर में कितने कीट है? यह ज्ञान हमारे किस काम का? दूर-सुदूर तक देखो या न देखो; हमें प्रयोजन हो, उतना ही देखना चाहिए। यदि दूर तक देखने वालों को प्रमाणभूत मानना है तो दूरदृष्टि वाले गिद्धों की उपासना करो।' (प्रा. वा. १/३३-३५) परंतु जैनदर्शन का कहना है 'विवक्षित एक ईष्ट पदार्थ का (सर्वथा) ज्ञान समग्रपदार्थ के ज्ञान के बिना नहीं हो सकता। प्रत्येक भाव के दूसरे भावों के साथ साधारण और असाधारण रूप से समग्र ज्ञान के बिना एक भी पदार्थ लक्षण सहित तथा उसके विपरीत अन्वय-व्यतिरेक के रूप में
जा सकता। कहा भी है-'जिसने सर्व प्रकार में से एक भाव देखा है. वह तत्त्वतः सर्वभावों (द्रव्य-गण-पर्याय रूप सर्वभावों) को जानता है; जिसने सर्वभावों को सर्वप्रकार से देखा है; उसने तत्त्वतः एकभाव को (सर्वथा) देखा है।
दूसरा 'जितरागादिदोषः' (जिसने राग-द्वेष आदि दोषों को जीत लिया है) विशेषण भगवान् देवाधिदेव अर्हन्त के अपायापगमातिशय को सूचित करता है। अपाय का अर्थ है विघ्न या दोष। सारे संसार में यह बात प्रसिद्ध है कि-राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकार आत्म-साधना में विघ्न रूप है, ये आत्मा को दूषित करने वाले हैं, इसलिए ये दोष रूप है। इसलिए भगवान् देवाधिदेव इनसे जूझकर इन्हें जीत चूके होते हैं। तात्पर्य यह है कि अर्हन्तदेव ने इन सभी अपायभूत दोषों को सदा के लिए खदेड़ दिया है। इस तत्त्व से अनभिज्ञ कई लोग कहते हैं-कोई पुरुष रागादि रहित है, ऐसा कहना सिर्फ वाणी विलास है।' लेकिन यह कथन भ्रांतिपूर्ण है। रागादि विकारों को नहीं जीतने वाला वह कैसे देवाधिदेवतत्त्व को प्राप्तकर सकता है? इसलिए अर्हन्तदेव के लिए रागादि से युक्त होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
• अरिहंतदेव का तीसरा 'त्रैलोक्यपूजितः' विशेषण उनके पूजातिशय को व्यक्त करता है। कुछ थोड़े-से ठगे गये भद्रबुद्धि जीवों के द्वारा की गयी पूजा-भक्ति से ही किसी व्यक्ति में देवत्व नहीं माना जा सकता; अपितु देवत्व का सही पता तो तब लगता है, जब चलितासन देव, असुर और विविध देशों की भाषा बोलने वाले बुद्धिशाली मनुष्य पारस्परिक जाति वैर छोड़कर मैत्रीभाव से ओतप्रोत हो जाते हैं, तिर्यों में भी जिनके समवसरण में प्रवेश करने की होड़ लग जाती
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