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सुगुरु और कुगुरु का अंतर
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक 6 से ९ अदेय-विवेक से शून्य कैसी विचित्र सौगत-दया है? अपने जन्म के समय ही माता के उदर को चीरने तथा मांस खाने | के उपदेश को सौगत दया कैसे कह सकता है? प्रकृति के धर्म की निरर्थकता को ज्ञान मानकर आत्मा (पुरुष) को निर्गुण, निष्क्रिय मानते हैं, ऐसे विवेकविकल कपिल को देव मानना कैसे सुसंगत हो सकता है? समस्त दोषों के आश्रय के समान गणाधिप, स्कन्द, कार्तिकेय, पवन आदि को भी (परम) देव कैसे कहा जा सकता है?
गाय पशु है प्रायः विष्ठा भी खाती है, कई दफा अपने ही पुत्र के साथ मैथुन-सेवन करती है, मौका आने पर अपने सींगों से जीवों का घात भी कर डालती है, अतः वह वंदनीय कैसे हो सकती है? 'वह दूध देती है' इसलिए | उसे वंदनीय माना जाय तो भैंस भी दूध देने वाली होने से वंदनीय क्यों नहीं? भैंस से गाय में खास विशेषता नहीं है। यदि गाय को प्रत्येक तीर्थ, ऋषि और देव का आश्रयस्थान मानते हो तो उसे दूहते क्यों हो? मारते और बेचते क्यों हो? और मूसल, ऊखल, चूल्हा, चौखट, पीपल, नीम, वट, आक और जल आदि को देवता मानते हो, इनमें से किसका किसने त्याग किया? इनमें देवत्व की मान्यता होने पर तो इनका इस्तेमाल करना ही छोड़ देना चाहिए, इन्हें सिर्फ पूजना ही चाहिए न? इसी कारण वीतरागस्तोत्र में हमने कहा है-'उदर और उपस्थ रूप इंद्रियवर्ग में विडंबित देवों से कृतकृत्य बने हुए हम देवों को मानने वाले देवास्तिक है, इस प्रकार की अहंबुद्धि वाले कुतीर्थी आप (वीतराग) जैसों का (देवत्वहीन मानकर) अपलाप करते हैं, सचमुच यह दुःख का विषय है' (वीत. स्तोत्र ६/८) ।।७।।
अब सुगुरु का लक्षण बताते हैं।६४। महाव्रतधरा धीरा, भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः ॥८॥ अर्थ :- पंच महाव्रत धारण करने वाले, उपसर्गों और परिषहों के समय धैर्य धारण करने वाले, भिक्षामात्र से
अपना निर्वाह करने वाले, सामायिकचारित्री एवं शुद्ध धर्म के उपदेष्टा गुरु माने गये हैं ।।८।। व्याख्या :- अहिंसा आदि पांच महाव्रतों के धारक, आपत्काल में, उपसर्ग या परिषह आने पर उन्हें कायरता से रहित होकर धैर्यपूर्वक सहकर अपने महाव्रतों को अखंडित रखने वाले मुनि ही गुरु के योग्य है। गुरु में मूलगुणों का प्रतिपादन करके अब उनमें उत्तरगुणों का भी अस्तित्व बताने की दृष्टि से कहते हैं- 'भैक्षमात्रोपजीविनः' अर्थात् वे गुरु
पानी या आवश्यक धर्मोपकरण सिर्फ दाता गहस्थों से भिक्षा के रूप में प्राप्त कर एकमात्र भिक्षावत्ति से निर्वाह करते हैं. न कि अपने पास उक्त पदार्थों की पर्ति के लिए धन, धान्य. सोना-चांदी. गांव या नगर आदि पर स्वामित्व(ममत्व) रूप परिग्रह रखते हैं। अब गुरु में मूलगुण और उत्तरगुण को धारण करने में कारणभूत गुण बताते हैं'सामायिकस्थाः ' वे सामायिक चारित्र में स्थिर रहते हैं। सामायिक में स्थित होकर ही वे मूलगुण और उत्तरगुण से भेद युक्त चारित्र का पालन करने में समर्थ हो सकते हैं। यह सभी मुनियों का साधारण लक्षण है। अब गुरु का असाधारण लक्षण बताते हैं-'धर्मोपदेशकाः' सच्चे गुरु होते है वे शुद्ध धर्म-सूत्र-चारित्र रूप, संवरनिर्जरामय अथवा साधुश्रावक-संबंधि भेद युक्त धर्म का उपदेश करते हैं। इसी कारण 'अभिधानचिन्तामणि' कोश में हमने बताया है'गुरुधर्मोपदेशकः गुरु वह है, जो धर्मोपदेश देता है,' सुशास्त्र के यथार्थ (सद्भुत) अर्थ का बोध देने वाला गुरु कहलाता है ।।८॥
अब कुगुरु का लक्षण बताते हैं।६५। सर्वाभिलाषिणः सर्वभोजिनः सपरिग्रहाः । अब्रह्मचारिणो मिथ्योपदेशा गुरुवो न तु ॥९॥ अर्थ :- सभी वस्तुओं की चाह वाले, सभी प्रकार का भोजन कर लेने वाले; समस्त परिग्रहधारी, अब्रह्मचारी
एवं मिथ्या उपदेश देने वाले गुरु नहीं हो सकते ॥९॥ व्याख्या :- उपदेश आदि देकर बदले में स्त्री, धन, धान्य, स्वर्ण, क्षेत्र, मकान, चौपाये पशु आदि सभी चीजें बटोरने के अभिलाषी, आवश्यक-अनावश्यक सभी प्रकार की वस्तुएँ संग्रह करके अपने अधिकार और स्वामित्व में
1. मांस. मदिरा, नशीली चीजें. सडी-बासी. अनंतकाय आदि जो भी चीज मिल जाय उसे खा-पी लेने वाले सर्वभोजी, जमीन जायदाद, स्त्री, पुत्र आदि परिग्रह रखने वाले तथा उक्त परिग्रह के कारण अब्रह्मचारी अगुरु होते हैं। 1. गांव, भक्त गण, तीर्थ आदि पर स्वामीत्व रखने वाले जैन साधु कैसे कहे जा सकते हैं?