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सम्यक्त्व के पांच लक्षण
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १५
मरण रूपी कैदखाने में कर्म रूपी डंड (दंडपाशक) से उन-उन यातनाओं को सहते हुए, उनके प्रतीकार करने में असमर्थ होता है; इसलिए निर्ममत्वभाव को स्वीकार करता हुआ दुःख से व्याकुल होता है, कहा भी है
'नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवभव में परलोक की साधना किये बिना ममत्व के विष से रहित होकर वेदरहित निर्वेद (वैराग्य) पूर्वक दुःख का वेदन करता रहता है। कई आचार्यों ने संवेग और निर्वेद का अर्थ उक्त अर्थ से विपरीत किया है - संवेग यानी संसार से वैराग्य और निर्वेद यानी मोक्ष की अभिलाषा ।
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४. अनुकंपा – दुःखी जीवों पर दया करने की इच्छा अनुकंपा है। पक्षपात रहित होकर दुःखी जनों के दुःख को मिटाने की भावना ही वस्तुतः अनुकंपा है। पक्षपात पूर्ण करुणा तो बाघ, सिंह आदि की भी अपने बच्चों पर होती है। वह अनुकंपा द्रव्य और भाव से दो प्रकार की है। द्रव्य से अनुकंपा कहते हैं - अपनी शक्ति के अनुसार दुःखी व्यक्ति | के दुःख का प्रतीकार करके उसका दुःख दूर करना और भाव से दुःखी के प्रति कोमल हृदय रखकर दया से परिपूर्ण होना। कहा भी है
संसार समुद्र में दुःखानुभव करते हुए जीवों को देखकर पक्षपात रहित होकर अपनी शक्ति के अनुसार द्रव्य से और भाव से उन्हें धर्माचरण में जोड़ना ही वस्तुतः उनके दुःखों को निर्मूल करना है। (श्रा. प्र. ५९ )
५. आस्तिक्य आत्मा है, आत्मा को अपनी शुभाशुभ प्रवृत्तियों के अनुसार फल स्वरूप मिलने वाला देवलोक, नरकगति, परलोक आदि है; संसार में प्राणियों की विभिन्नता का कारण कर्म है, कर्मफल है, इस प्रकार जो मानता है, | वह आस्तिक है उसका भाव (गुण) या कर्म (क्रिया) आस्तिक्य है। अन्यान्य धर्मतत्त्वों का स्वरूप सुनने-जानने पर भी जो कभी जिनोक्त धर्मतत्त्व को छोड़कर दूसरे धर्मतत्त्व को स्वीकार करने की इच्छा नहीं करता, जिनोक्त धर्मतत्त्व पर ही जिसकी दृढ़ श्रद्धा होती है, वही सच्चा आस्तिक है। ऐसे आस्तिक की पहिचान धर्म और सम्यक्त्व के प्रत्यक्ष न | दिखाई देने (परोक्ष होने पर भी आस्तिक्य से की जा सकती है। ऐसे आस्तिक्य लक्षणयुक्त सम्यक्त्वी के लिए कहा है
"जिनेश्वरों ने जो कहा है, वही सत्य और शंका रहित है, ऐसे शुभ परिणामों से युक्त और शंका, कांक्षा आदि दोषों से रहित हो, वह सम्यक्त्वी माना जाता है।
'कतिपय आचार्यों ने शम आदि सम्यक्त्व के चिह्नों (लिंगों) की व्याख्या ओर रूप से की है। उनके मत से शम | का अर्थ है - भलीभाँति परीक्षा किये हुए वक्ता (आप्स) के द्वारा रचित आगमों के तत्त्वों में आग्रह रखकर मिथ्याभिनिवेश | का उपशम (शांत) करना। यह सम्यग्दर्शन का (प्रथम) लक्षण है। संक्षेप में कहें तो, अतत्त्व का त्याग करके तत्त्व (सत्य) को ग्रहण करने वाला ही सम्यग्दर्शनी है। संवेग का अर्थ है- नरकादिगतियों में जन्म-मरण एवं दुःखों के भय से जिन प्रवचन के अनुसार धर्माचरण करना और उनके प्रति श्रद्धा रखना । संवेगवान सम्यग्दृष्टि आत्मा नरक में प्राप्त | होने वाली शारीरिक, मानसिक यंत्रणाओं, शीत, उष्ण आदि वेदनाओं तथा वहां के क्लिष्टपरिणामी परमाधार्मिक असुरों | द्वारा पूर्व वैर का स्मरण कराकर परस्पर असीम क्लेश की उदीरणा से होने वाली पीड़ा, तियंचगति में बोझ उठाने की पराधीनता, लकड़ी, चाबुक आदि से मार खाते रहने आदि दुःख, मनुष्य गति में दरिद्रता, दौर्भाग्य, रोग, चिन्ता आदि विडंबनाओं के विषय में चिंतन करके उनसे डरकर उनका निवारण करने और उक्त दुःखों से शांति प्राप्त करने के उपायभूत सद्धर्माचरण करते हैं, तभी उनका संवेग रूप चिह्न दृष्टिगोचर होता है। अथवा सम्यग्दर्शन में उत्साह का | वेग उत्तरोत्तर बढ़ते जाना - वर्धमान होना – सम्यक्त्व का संवेग रूप चिह्न है। निर्वेद का अर्थ है- विषयों के प्रति अनासक्ति भाव । जैसे निर्वेदवान आत्मा विचार करता है- 'संसार में कठिनता से अंत आ सकने वाले कामभोगों के प्रति | जीवों की जो आसक्ति है, वह इस लोक में अनेक उपद्रव रूप फल देने वाली है, परलोक में भी नरक - नियच - मनुष्य| जन्म रूप अत्यंत कटुफल देने वाली है। इसलिए ऐसे कामभोगों से क्या लाभ? ये अवश्य ही त्याज्य है। इस प्रकार निर्वेद (वैराग्य) से भी आत्मा के सम्यग्दर्शन की अवश्य पहिचान हो जाती है। अनुकंपा का अर्थ है-दूसरे के दुःख | को देखकर हृदय में उसके अनुकूल कंपन होना। उसकी क्रिया दया के रूप में होती है। अनुकंपावान सोचता है - संसार
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