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सम्यक्त्व के पांच लक्षण
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १५
में अनुरक्त हो, फिर भी पूजनीय माने जाते हों तो महादुःख की बात है। 1 क्योंकि यत्र-तत्र सर्वत्र बहक जाने वाले भोले भाले लोग इनका आश्रय लेकर पतन और विनाश के मार्ग पर बढ़े जा रहे हैं ।।१४।।
इस प्रकार कुदेव, कुगुरु और कुधर्म का परित्याग कर सुदेव, सुगुरु और सुधर्म की प्रतीति स्वरूप सम्यक्त्व की | सुंदर व्याख्या की गयी है। किंतु निश्चयदृष्टि से सम्यक्त्व शुभ आत्मा का शुद्ध परिणाम रूप है; जो अपने आप में अमूर्त है, जिसे हम देख नहीं सकते, किन्तु उस (परिणाम) के ५ चिह्नों से हम उसे (सम्यक्त्व को ) जान सकते हैं। अतः अब ५-५ चिह्नों का वर्णन करते हैं
।७१। शम-संवेग-निर्वेदाऽनुकम्पाऽऽस्तिक्यलक्षणैः । लक्षणैः पञ्चभिः सम्यक् सम्यक्त्वमुपलक्ष्यते ॥ १५॥ अर्थ :- शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य रूप पांच लक्षणों से सम्यक्त्व को भलीभांति पहचान सकते हैं ।। १५ ।।
व्याख्या : - अपनी आत्मा में रहा हुआ अथवा दूसरे की आत्मा में रहा हुआ परोक्ष सम्यक्त्व भी शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य रूपी पांच चिह्नों बाह्य व्यवहारों से जाना जा सकता है। उन पांचों का स्वरूप | क्रमशः इस प्रकार है
१. शम - शम का अर्थ है- प्रशम अथवा क्रूर अनंतानुबंधी कषायों का अनुदय; कषायों को स्वभाव से या | कषायपरिणति के कटूफल जान-देखकर उन्हें उदयावस्था में रोकना । कहा है कि - कर्मप्रकृतियों के अशुभ विपाक को ( कर्मफल) जानकर आत्मा का उपशमभाव का अभ्यास हो जाने से अपराधी पर भी कभी क्रोध न करना प्रशम है। कई आचार्य क्रोध रूपी खुजली और विषयतृष्णा के उपशम को शम कहते हैं। सवाल यह होता है कि सम्यग्दर्शनप्राप्त और | साधुओं की सेवा करने वाले जीव के तो क्रोधकंडू (खाज) और विषयतृष्णा हो नहीं सकती। तब फिर निरपराधी और अपराधी पर क्रोध करने वाले सम्राट् श्रेणिक और श्रीकृष्णजी, जिनमें विषयतृष्णा एवं क्रोधकंडू प्रत्यक्ष परिलक्षित होते थे, अतः उनमें पूर्वोक्त लक्षण वाला शम था, यह कैसे माना जाय? और शम नहीं था तो उनमें सम्यक्त्व का अस्तित्व भी कैसे माना जाय ? इसका समाधान यों करते हैं, ऐसी बात नहीं है कि उनमें शम का अभाव था, इसलिए सम्यक्त्व | नहीं था । जैसे लुहार की भट्टी में धुँए से रहित राख से ढकी हुई आग होती है। उस आग में धुंआ जरा भी नहीं होता । | उस संबंध में न्यायशास्त्रानुसार नियम ( व्याप्ति ) ऐसा है कि जहां जहां धुंआ है वहां-वहां अग्नि जरूर होती है, क्योंकि जहां लिंग (चिह्न) होता है, वहां लिंगी अवश्य होता है, बशर्ते कि लिंग का परीक्षा के द्वारा निश्चयकर लिया गया हो । | इसीलिए कहते है कि धुंआ - चिह्न (लिंग) हो, वहां चिह्नवाला अग्नि (लिंगी) अवश्य होता है। परंतु जहां-जहां चिह्न वाला लिंगी हो वहां चिह्न (लिंग) का होना अनिवार्य नहीं है। जैसे कहीं-कहीं लाल अंगारों वाली अग्नि धुंए से रहित भी होती है; वहां (लिंगी में ) धुंए रूप लिंग (चिह्न) के होने का नियम नहीं है। लिंग-लिंगी का संबंध नियम के विपर्यास में होता है। इसी दृष्टि से श्रीकृष्ण और श्रेणिक राजा दोनों निश्चित रूप से सम्यक्त्वी थे, लेकिन सम्यक्त्व के चिह्न रूप | प्रशम कथंचित् था, कथंचित् नहीं । अनंतानुबंधी आदि कषायों की तीन चौकड़ी की अपेक्षा से उनका कषाय प्रशम था, | लेकिन संज्वलन कषाय की चौकड़ी की अपेक्षा से क्रोधादि प्रशम नहीं हुए थे। इसलिए उस अपेक्षा से उक्त दोनों | महानुभावों के सम्यक्त्वी होते हुए भी उसमें संज्वलन क्रोधकंडू तथा सूक्ष्म विषयतृष्णा का अस्तित्व था । कभी-कभी संज्वलनकषाय भी तीव्रता से अनंतानुबंधी के समान विपाक वाला होता है, यह बात भी स्पष्ट है।
२. संवेग – संवेग का अर्थ है - मोक्ष की अभिलाषा । सम्यग्दृष्टि जीव राजा और इन्द्र के वैषयिक सुख को भी दुःखमिश्रित होने के कारण दुःख रूप मानते हैं; वे मोक्षसुख को ही एकमात्र सुख रूप मानते हैं। कहा भी है| सम्यक्त्वी- आत्मा मनुष्य और इंद्र के सुख को भाव (अंतर) से दुःख मानता है और संवेग से मोक्ष के बिना और किसी वस्तु की प्रार्थना नहीं करता; (श्रा. प्र. ५६) वही संवेगवान होता है ।
३. निर्वेद
संसार से वैराग्य होना, निर्वेद है। सम्यग्दृष्टि आत्मा दुःख और दुर्गति से गहन बने हुए जन्म1. जैन मुनि वेश में भी ऐसे मुनि हो तो वे भी अदृष्टव्य है।
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