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सम्यक्त्व के विपक्षी मिथ्यात्व का स्वरूप और उसके प्रकार
योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक १ से ३ | भी लेता है, हालांकि रसोदय से नहीं करता; मगर औपशमिक सम्यक्त्व में उपशांतकषाय युक्त जीव तो सत्कर्म का वेदन बिलकुल नहीं कर पाता। (वि. भा. १२९०) इसलिए क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की स्थिति ६६ सागरोपम की होती है। कहा है कि क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी विजयादिक देवलोक में दो बार जाता है और अधिकतर मनुष्यजन्म प्रार | उपर्युक्त स्थिति को पूर्ण करता है। (वि. भा. ४३४) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व समस्त जीवों की अपेक्षा में सर्वकाल में रहता है। तीसरा क्षायिक-सम्यक्त्व-मिथ्यात्व मोहनीय और अनंतानुबंधी चार कषायों का समूल नष्ट होना क्षय कहलाता है और क्षय से संबंधित सम्यक्त्व क्षायिक कहलता है। यह सादि अनंत है।
अब कुछ आंतरश्लोकों में सम्यक्त्व की महिमा बतलाते हैं___ 'सम्यक्त्व बोधिवृक्ष का मूल है; पुण्यनगर का द्वार है; निर्वाण-महल की पीठिका है; सर्वसंपत्तियों का भंडार है। जैसे सब रत्नों का आधार समुद्र है, वैसे ही सम्यक्त्व गुणरत्नों का आधार है और चारित्र रूपी धन का पात्र है। जैसे |पात्र (आधार) के बिना धन रह नहीं सकता, वैसे ही सम्यक्त्व के बिना चारित्र रूपी धन रह नहीं सकता। ऐसे उत्तम सम्यक्त्व की कौन प्रशंसा नहीं करेगा? जैसे सूर्योदय होने से अंधेरा टिक नहीं सकता, वैसे ही सम्यक्त्व-सुवासित व्यक्ति में अज्ञानांधकार टिक नहीं सकता। तिर्यचगति और नरकगति के द्वार बंध करने के लिए सम्यक्त्व अर्गला (आगल) के समान है। देवलोक, मानवलोक तथा मोक्ष के सुख के द्वार खोलने के लिए सम्यक्त्व कुंजी के समान है। सम्यक्त्व प्राप्त करने से पहले अगर आयुष्यबंध न हुआ हो और आयुष्यबंध होने से पहले सम्यक्त्व का त्याग न किया हो तो वह जीव सिवाय वैमानिक देव के दूसरा आयुष्य नहीं बांधता। जिसने सिर्फ अंतर्मुहूर्तभर यदि इस सम्यक्त्व का सेवन करके इसका त्यागकर दिया हो तो भी वह जीव चतुर्गति रूप संसार में अधिक समय तक परिभ्रमण नहीं करता और जो मनुष्य इसका दीर्घकाल तक सेवन करता है, सदा ही इसे धारण करता है, उसके लिए तो कहना ही क्या? तात्पर्य यह है कि ऐसा सम्यक्त्वी जीव अल्पसमय में ही मोक्ष-सुख का अधिकारी बन जाता है ।।२।।
उस सम्यक्त्व का वास्तविक स्वरूप उसके विपक्ष का ज्ञान होने से ही भलीभांति समझा जा सकता हैं, इसलिए सम्यक्त्व के विपक्षी मिथ्यात्व का स्वरूप बताते हैं
।५९। अदेवे देवबुद्धिर्या, गुरुधीरगुरौ च या । अधर्मे धर्मबुद्धिश्च, मिथ्यात्वं तद्विपर्ययात् ॥३॥ अर्थ :- जिसमें देव के गुण न हों, उसमें देवत्वबुद्धि, गुरु के गुण न हों, उसमें गुरुत्वबुद्धि और अधर्म में धर्मबुद्धि
रखना मिथ्यात्व है। सम्यक्त्व से विपरीत होने के कारण यह मिथ्यात्व कहलाता है ।।३।। व्याख्या :- जिस व्यक्ति की अदेव में देवबुद्धि हो, अगुरु में गुरुबुद्धि और अधर्म में धर्मबुद्धि हो, वहाँ मिथ्यात्व कहलाता है। यह सम्यक्त्व से विपरीत-तत्त्व रूप होने से (जिसका लक्षण आगे बताया जायेगा) अदेव, अगुरु और अधर्म की मान्यता रूप मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व का सीधा लक्षण सम्यक्त्व से विपरीत होने से सम्यक्त्व से विपरीत स्वरूप का समझना चाहिए। यहां मिथ्यात्व का यह लक्षण भी ग्रहण कर लेना चाहिए कि देव में अदेवत्व, गुरु में अगुरुत्व और धर्म में अधर्मत्व की मान्यता रखना।
वह मिथ्यात्व पांच प्रकार का है-आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक, आभिनिवेशिक, सांशयिक और अनाभोगिक। १. आभिग्रहिक - जहां पाखंडी की तरह अपने माने हुए (असत्) शास्त्र के ज्ञाता होकर परपक्ष का प्रतीकार
करने में दक्षता होती है, वहां आभिग्रहिक मिथ्यात्व होता है। २. अनाभिग्रहिक - साधारण अशिक्षित लोगों की तरह तत्त्वविवेक किये बिना ही बहकावे में आकर सभी देवों
को वंदनीय मानना; सभी गुरुओं और धर्मों के तत्त्व की छानबीन किये बिना ही समान
मानना, अनाभिग्रहिक है। ३. आभिनिवेशिक - अंतर से यथार्थ वस्तु को समझते हुए भी मिथ्या कदाग्रह (झूठी पकड़) के वश होकर जमालि
की तरह सत्य को झुठलाने या मिथ्या को पकड़े रखने का कदाग्रह करना, आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है।
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