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।। ॐ अर्हते नमः ।। २. द्वितीय प्रकाश सम्यक्त्य का स्वरूप :
इससे पहले श्रावकधर्म के योग्य अधिकारी-मार्गानुसारी सद्गृहस्थ का वर्णन किया गया। किंतु श्रावकधर्म पंचअणुव्रतादि १२ व्रतों से युक्त विशेष योग्य गृहस्थ के लिए होता है। वह द्वादशव्रत युक्त श्रावकधर्म सम्यक्त्वमूलक होता
है।
इसलिए अब हम श्रावकधर्म के मूल-सम्यक्त्व का स्वरूप बताते हैं।५७। सम्यक्त्वमूलानि, पञ्चाणुव्रतानि गुणास्त्रयः । शिक्षापदानि चत्वारि, व्रतानि गृहमेधिनाम् ।।१।। अर्थ :- पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत; यों मिलाकर गृहस्थ (श्रावक) धर्म के बारह व्रत
सम्यक्त्वमूलक होते हैं ॥१॥ व्याख्या :- श्रावकव्रतों का मूल कारण सम्यक्त्व है। यानी बारह व्रतों की जड़ सम्यक्त्व है। महाव्रतों की अपेक्षा से छोटे होने से अहिंसादि पांच अणुव्रत कहलाते हैं, वे ही मूलगुण है। दिशापरिमाणादि तीन उत्तरगुण रूप होने से गुणव्रत है। सदैव पुनः पुनः अभ्यास करने योग्य होने से सामायिक आदि ४ शिक्षाव्रत कहलाते हैं। इसी कारण शिक्षाव्रतों को गुणव्रतों से अलग बताये हैं। इन बारह व्रतों में से पांच अणुव्रत और तीन गुणव्रत गृहस्थश्रावक के लिए प्रायः जीवनभर के लिए होते हैं ।।१।। - बारहव्रतों को सम्यक्त्वमूलक कहा है, इसलिए अब सम्यक्त्व का स्वरूप बताते हैं।५८। या देवे देवताबुद्धिर्गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधी: शुद्धा, सम्यक्त्वमिदमुच्यते ॥२॥ अर्थ :- साधक की देव (अर्हन्त आदि वीतराग) में जो देवत्वबुद्धि, गुरु में जो गुरुत्वबुद्धि और धर्म में शुद्ध धर्म
की बुद्धि होती है, उसे ही सम्यक्त्व कहा जाता है ॥२॥ व्याख्या :- देवत्व, गुरुत्व और धर्मत्व का लक्षण हम आगे बतायेंगे। मूल में तो देव, गुरु और धर्म में अज्ञान, संशय और विपर्यय से रहित निश्चय पूर्वक निर्मल श्रद्धा को सम्यक्त्व कहा है। यद्यपि साधुओं और श्रावकों की जिनोक्त तत्त्वों पर समान रुचि भी सम्यक्त्व का लक्षण है; तथापि गृहस्थों के लिए देव, गुरु और धर्मतत्त्व में पूज्यत्व स्थापित करके उनकी उपासना और तद् योग्य अनुष्ठान करना उपयुक्त होने से उसके लिए देव, गुरु और धर्मतत्त्व के प्रतिपत्तिलक्षण को सम्यक्त्व कहा है।
सम्यक्त्व के तीन भेद होते हैं औपशमिक, क्षायोपमिक और क्षायिक। उपशम कहते हैं-राख से ढकी हुई अग्नि के समान मिथ्यात्वमोहनीय कर्म तथा अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ की अनुदयावस्था को। इस प्रकार के उपशम से युक्त सम्यक्त्व को औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। वह अनादिकालीन मिथ्यादृष्टि आत्मा को तीन करण पूर्वक अंतर्मुहूर्त-परिमित काल के लिए होता है। और चारोंगति में रहने वाले जीवों को होता है। अथवा उपशमश्रेणि पर चढ़े हुए साधक को होता है। इसीलिए शास्त्र में कहा है-उपशमश्रेणि पर आरूढ़ व्यक्ति को औपशमिक सम्यक्त्व होता है। अथवा तीन पुंज नही किये हों, किन्तु मिथ्यात्व नष्टकर दिया हो, वह उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करता है। दूसरा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उदय में आये हुए मिथ्यात्व-मोहनीय और अनुतानुबंधी चार कषायों को अंशतः (देश से) समूल-नाश रूप क्षय कर देना और उदय में नहीं आये हुए का उपशम करना; इस प्रकार क्षय से युक्त उपशम-क्षयोपशम कहलाता है और क्षयोपशम से संबंधित सम्यक्त्व क्षयोपशमिक कहलाता है। इस सम्यक्त्व में शुभकर्मों का वेदन होने से इसे वेदक-सम्यक्त्व भी कहते हैं। जबकि औपशमिक सम्यक्त्व शुभकर्मों के वेदन से रहित होता है। यही औपशमिक और क्षायोपशमिक में अंतर है। तत्त्वज्ञों ने कहा है-'क्षायोपशमिक में तो जीव किसी अंश तक सत्कर्मों का वेदन कर
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