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धर्माधिकारी-मार्गानुसारी के ३५ गुणों पर विवेचन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ४६ से ५६ तथा अपनी निर्बलता-सबलता का विचार करके सभी कार्य प्रारंभ करना चाहिए। ऐसा न करने पर प्रायः परिणाम विपरीत आता है। कहा भी है-'शक्ति होने पर भी सहन करने वाला शक्ति में उसी तरह वृद्धि करता है, जैसे शक्ति के अनुसार शरीर की पुष्टि होती है। परंतु बलाबल का विचार किये बिना किया हुआ कार्यारंभ शरीर, धन आदि संपत्तियों का क्षय करता है।
२४. वृत्तस्थों और ज्ञानवृद्धों का पूजक - अनाचार को छोड़कर सम्यग् आचार के पालन में दृढ़ता से स्थिर रहने वालों को वृत्तस्थ कहते हैं। गृहस्थ को उनका हर तरह से आदर करना चाहिए। वस्तुत्व के निश्चयात्मक ज्ञान से जो महान् हो अथवा वृत्तस्थ के सहचारी, जो ज्ञानवृद्ध हों, उनकी पूजा करनी चाहिए। पूजा का अर्थ है-सेवा करना, दोनों हाथ जोडकर नमस्कार करना. आसन देना उनके आते ही खड़े होकर आदर देना, सत्कार-सम्मान देना आदि। वृत्तस्थ और ज्ञानवृद्ध-पुरुषों की पूजा करने से अवश्य ही कल्पवृक्ष के समान उनसे सदुपदेश आदि फल प्राप्त होते हैं। ।
२५. पोष्य का पोषण करना - सद्गृहस्थ का यह उत्तरदायित्व है कि परिवार में माता, पिता, पत्नी, पुत्र, पुत्री आदि को जो व्यक्ति उसके आश्रित हों या संबंधित हों, उनका भरण-पोषण करे। उनका योगक्षेम वहन करे। इससे उन सब का सदभाव व सहयोग प्राप्त होगा। भविष्य में वे सब उपयोगी बनेंगे।
२६. दीर्घदर्शी - सद्गृहस्थ को किसी भी कार्य के करने से पूर्व दूरदर्शी बनकर उस कार्य के प्रारंभ से पूर्ण होने तक के अर्थ-अनर्थ का विचार करके कार्य करना चाहिए। दूरदर्शी का अर्थ है-हर कार्य पर दूर की सोचने वाला।
२७. विशेषज्ञ - सद्गृहस्थ को विशेषज्ञ भी होना चाहिए। विशेषज्ञ वह होता है-जो वस्तु-अवस्तु कृत्यअकृत्य, स्व-पर आदि का अंतर जानता हो। वस्तुत्व का निश्चय करने वाला ही वास्तव में विशेषज्ञ कहलाता है। और अविशेषज्ञ. व्यक्ति और पश में कोई अंतर नहीं समझता। अथवा विशेषतः आत्मा के गुणों और दोषों को जो जानता है, वही विशेषज्ञ कहलाता है। कहा है कि 'मनुष्य को प्रतिदिन अपने चरित्र का अवलोकन करना चाहिए कि मेरा आचरण पश समान है या सत्पुरुषों के समान है? [यह अवलोकन गुण समृद्धि का मूल है।]
२८. कृतज्ञ - सद्गृहस्थ को कृतज्ञ होना चाहिए। कृतज्ञ का अर्थ है-जो दूसरों के किये उपकार को जानता हो। कृतज्ञ मनुष्य दूसरों के उपकार को भूलता नहीं। इस प्रकार उपकारी की ओर से जो कल्याण का लाभ होता है, उसके बदले उसका बहुमान करना चाहिए। कृतज्ञता का बदला नहीं चुकाया जा सकता। और कृतघ्न के लिए कहा है'कतघ्ने नास्ति निष्कतिः।' कतघ्न किये हए उपकार को भल जाता है। अपने को ऐसा नहीं बनना।
२९. लोकवल्लभ - सद्गृहस्थ का लोकप्रिय होना जरूरी है। लोकप्रिय वही हो सकता है-जो विनय, नम्रता, सेवा, सरलता, सहानुभूति, दया आदि गुण युक्त हो। गुणों के प्रति किसे प्रीति नहीं होती? सभी लोग गुणों से आकृष्ट होते हैं। जिनमें लोकप्रियता नहीं होती, वे जनता से घृणा, द्वेष, वैर, संघर्ष या विरोध करके अपना धर्मानुष्ठान तो दूषित कर ही लेते हैं; दूसरों को भी उकसा एवं भड़काकर व स्वार्थभावना भरकर बोधिलाभ से भ्रष्ट करने में निमित्त बनते
३०. लज्जावान - सद्गृहस्थ के लिए लज्जा का गुण परमावश्यक है। लज्जावान व्यक्ति किसी भी पापकर्म को। करते हुए संकोच करेगा, शर्मायेगा और प्राण चले जायें, मगर अंगीकार किये हुए व्रत-नियमों का त्याग नहीं करेगा। नीतिज्ञ कहते हैं कि लज्जा अनेक गुणों की जननी है। वह अत्यंत शुद्ध हृदर वाली आर्यमाता के समान है। अनेक गुणों की जन्मदात्री लज्जा को पाकर साधक सत्य-सिद्धांत पर डटा रहता है। लज्जाशील सत्वशाली महापुरुष सुखसुविधाओं और प्राणों का भी परित्याग कर देते हैं, परंतु अंगीकृत प्रतिज्ञा को कदापि नहीं छोड़ते।। _____३१. दयावान - दया सद्गृहस्थ का महत्त्वपूर्ण गुण है। दुःखी जीवों का दुःख दूर करने की अभिलाषा दया कहलाती है। प्रशम (१६८) कहा भी है-'व्यक्ति को जैसे अपने प्राण प्रिय है, वैसे ही सभी जीवों को भी अपने प्राण उतने ही प्रिय है। इसलिए धर्मात्मा गृहस्थ दया के अवसर कदापि न चूके।' मनुष्य अपनी आत्मा पर संकट के समय दया चाहता है, वैसे ही समस्त प्रत्येक जीवों पर दया करे। ___३२. सौम्य – सद्गृहस्थ की प्रकृति और आकृति सौम्य होनी चाहिए। क्रूर आकृति और भयंकर स्वभाव वाला
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