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धर्माधिकारी-मार्गानुसारी के ३५ गुणों पर विवेचन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ४६ से ५६ कहते हैं; जो नौकरों को और खुद को परेशान करके धन को इकट्ठा कर लेता है, परंतु उसका उचित स्थान पर व्यय
दात्विक के पास अर्थ (धन) का नाश होने से और मलहर के पास धर्म और काम का विनाश होने से दोनों का कल्याण नहीं होता। कदर्य का धन सरकार, राजकर्मचारी या चोर ले जाते हैं। वह धन उसके धर्म और काम के लिए नहीं रहता। इसलिए यहां यह प्रतिपादन किया गया है कि गृहस्थ को त्रिवर्ग के अबाधित रूप से सेवन में अंतराय नहीं डालना चाहिए। कदाचित् दैवयोग से इनमें से किसी भी पुरुषार्थ के सेवन में बाधा उपस्थित होने का समय आ जाये तो उत्तरोत्तर का सेवन छोड़कर पूर्व के पुरुषार्थ की बाधा से रक्षा करनी चाहिए। जैसे काम में बाधा उपस्थित हो तो धर्म और अर्थ में बाधा की रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि धर्म और अर्थ के होने पर काम की प्राप्ति भी आसानी से हो सकती है। काम और अर्थ में बाधा आये तो धर्म की रक्षा करनी चाहिए। क्योंकि अर्थ और काम का मूल धर्म है। | एक नीतिज्ञ ने कहा है-"भिक्षा मांगकर निर्वाह करने से भी अगर धर्म की रक्षा होती है, तो मैं अपने को संपत्तिशाली मानता हूं।" वास्तव में सज्जन धर्म रूपी धन से धनाढ्य होते हैं।
१९. अतिथि आदि का सत्कार – सद्गृहस्थ को घर आये हुए अतिथि का स्वागत करना आवश्यक है। अतिथि उसे कहते हैं-सतत स्वपर-कल्याण की सुंदर प्रवृत्ति में एकाग्र होने से जिसकी कोई निश्चित तिथि न हो। नीतिकारों ने कहा है-'जिस महात्मा ने तिथि और पर्वो के उत्सव का त्याग किया है; उसे अतिथि समझना चाहिए और शेष को अभ्यागत।' साधु-साध्वीगण कोई एक तिथि या पर्व निश्चित न करके सदा ही समग्र लोक में प्रशंसनीय होते हैं। इसलिए वे उत्कृष्ट अतिथि है। तात्पर्य यह है जिसकी धर्म, अर्थ और काम की आराधना करने की समग्र शक्ति क्षीण हो गयी| हो, उस अतिथि, साधु और दीनों का यथायोग्य सत्कार करना चाहिए। तिथि का पर्यायवाची शब्द दिन है। दिन और दीन दोनों शब्द 'दो अवखंडने' (क्षयार्थक) धातु से बने हैं। इसलिए दीन भी अतिथि अर्थ में गृहीत हो जाता है, एक तरफ केवल एक गुण औचित्य हो और दूसरी ओर औचित्य-रहित अनेक गुण-समुद्र हो; फिर भी वे गुण विष-समान है। अर्थात् गुणवान् अतिथि साधु को भक्तिपूर्वक और दीन-दुःखी एवं अनाथ-पंगुओं को अनुकंपा पूर्वक देना; यही उचित रीति है।
२०. सदा अभिनिवेश से दूर – सद्गृहस्थ को मिथ्या-आग्रह से सदा दूर रहना चाहिए। अभिनिवेश कहते हैं|मिथ्या आग्रह को। मिथ्याभिनिवेशी वही व्यक्ति होता है, जो नीतिमार्ग से अनभिज्ञ होता है और दूसरों को नीचा दिखाने
या पराभूत करने के लिए किसी कार्य की जिद्द पकड़कर आरंभ करता है। इसलिए कहा है-अहंकार नीच पुरुषों को निष्फलता दिलाता है, उसमें अनीति, दुर्गुण और कार्यारंभ से खेद पैदा करता है। उलटे प्रवाह में तैरने का व्यसन जलचर मछलियों के समान व्यर्थ परिश्रम है। वास्तव में अभिनिवेशयुक्त व्यक्ति जिद्दी और अभिमानी होता है। वह अपने ही दुर्गुणों से दुःखी होता है। इसलिए सद्गृहस्थ को अभिनिवेश से रहित होना चाहिए। चूंकि कदाग्रह से रहित भाव नीच व्यक्तियों में भी यदाकदा दिखाई देता है, किंतु वह होता है कपटयुक्त। इसलिए यहां 'सदा' शब्द का प्रयोग किया
२१. गुण का पक्षपाती - सद्गृहस्थ गुणों का और उपलक्षण से गुणीजनों का पक्षपाती होना चाहिए। आशय यह है कि गुणीजन जब भी उसके संपर्क में आये, वह उनके साथ सौजन्य, दाक्षिण्य, औदार्य तथा गांभीर्य का व्यवहार करे। 'आओ पधारो' जैसे प्रिय शब्दों से स्वागत करे; साथ ही गुणीजनों का समय-समय पर बहुमान करे, उनकी प्रशंसा करे, उन्हें प्रतिष्ठा दे; उनके कार्यों में सहायक बनें, उनका पक्ष ले; इत्यादि प्रकार से गुणीजनों के अनुकूल प्रवृत्ति करे। ऐसा गुणीजनों के प्रति एवं स्वपर-कल्याणकारी आत्मधर्म रूपी आत्मगुणों के प्रति पक्षपाती व्यक्ति निश्चय ही पुण्य का बीज बोकर परलोक में गुणसमूह-संपत्ति प्राप्त करता है।
२२. निषिद्ध देश-काल-चर्या का त्याग – जिस देश और काल में जिस आचार का निषेध किया गया हो, उसे सद्गृहस्थ को छोड़ देना चाहिए। अगर कोई हठवश निषिद्ध देशाचार या वर्जित कालाचार को अपनाता है, तो उसे प्रायः | | चोर, डाकू आदि के उपद्रव का सामना करना पड़ता है; उससे धर्म की हानि भी होती है। । २३. बलाबल का ज्ञाता - सद्गृहस्थ को अपनी अथवा दूसरे की द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की शक्ति जानकर
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