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धर्माधिकारी - मार्गानुसारी के ३५ गुणों पर विवेचन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ४६ से ५६
(सुरक्षित) निधि के रूप में (संकट के अवसरों पर) रखना चाहिए।' कई नीतिकारों ने तो कहा है- 'कमाई के अनुसार | चार विभाग करने चाहिए। (पंच सू. २) अपनी आय का चौथा भाग भंडार में (सुरक्षित) रखना चाहिए। चौथा भाग ब्याज या व्यापार में, चौथा भाग धर्मकार्य और उपभोग में और चौथा भाग आश्रितों के भरण-पोषण में लगाये ।' कुछ | नीतिकारों का कहना है कि, 'कमाई हुई रकम में से आधी से अधिक रकम धार्मिक कार्यों में लगाये और शेष बची हुई थोड़ी रकम सक्रिय होकर इस लोक के कार्य में लगाये । यदि गृहस्थ अनुचित रूप से अनाप- सनाप खर्च करता है, तो जैसे दिनोंदन बढ़ता हुआ रोग शरीर को दुर्बल बना देता है वैसे ही समग्र वैभव भी प्रतिदिन के अत्यधिक अपव्यय से | पुरुष को सभी सुव्यवहारों के लिए असमर्थ बना देता है। और भी कहा है-कि आय और व्यय का हिसाब किये बिना जो कुबेर के समान अत्यधिक खर्च करता है, वह थोड़े ही समय में भिखारी बन जाता है।
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१३. संपत्ति के अनुसार वेषधारण - सद्गृहस्थ को अपनी संपत्ति, हैसियत, वैभव, अवस्था देश, काल और जाति के अनुसार ही वस्त्र, • अलंकार आदि धारण करना चाहिए। जो अपनी हैसियत या संपत्ति के अनुसार पोशाक धारण | नहीं करता; प्रत्युत तड़कीली-भड़कीली पोशाक पहनकर दिखावा करता है, वह लोगों में हंसी का पात्र होता है। लोग | उसकी चटकीली या बहुमूल्य पोशाक पर से अनुमान लगा लेते हैं कि इसने बेईमानी, अन्याय, अत्याचार या निंदनीय कर्म करके पैसा कमाया होगा । अथवा लोग उसके बारे में शंका करने लगते हैं कि आज-कल तो इसके बहुत कमाई | होती होगी; तभी तो इतना अफलातून खर्च करता है और ऐसी बढ़िया बेशकीमती पोशाक पहनता है। इसका एक दूसरा अर्थ यह भी है कि आमदनी होती हो, फिर भी कंजूसी से खर्च नहीं करता; वैभव होने पर भी खराब, गंदे, फटेटूटे कपड़े पहनता है, तो वह भी लोगों में निंदा का पात्र बनता है और वह धर्म का अधिकारी भी नहीं बन सकता
१४. बुद्धि के आठ गुणों का धनी सद्गृहस्थ में बुद्धि के निम्नलिखित आठ गुण होने आवश्यक है - १. शुश्रूषा, २. श्रवण, ३. ग्रहण, ४. धारण, ५. ऊह, ६. अपोह, ७. अर्थ-विज्ञान और ८. तत्त्वज्ञान | इनका अर्थ क्रमशः इस प्रकार है - १. शुश्रूषा - धर्मशास्त्र सुनने की अभिलाषा । २. श्रवण - धर्म-श्रवण करना। ३. ग्रहण - श्रवण करके ग्रहण करना । ४. धारण- सुनी हुई बात को भूल न जाये, इस तरह उसे धारण करके मन में रखना । ५. ऊह - जाने हुए अर्थ के अलावा दूसरे अर्थों के संबंध में तर्क करना । ६. अपोह - उक्ति (श्रुति), युक्ति और अनुभूति से विरुद्ध अर्थ | से हटना अथवा हिंसा आदि आत्मा को हानि पहुंचाने वाले पदार्थों से पृथक् हो जाना या अपने को पृथक् कर लेना । | अथवा ऊह यानी सामान्यज्ञान का और अपोह यानी विशेषज्ञान का व्यावर्तन (विश्लेषण) करना । ७. अर्थ-विज्ञान ऊहापोह के योग से मोह और संदेह दूर करके वस्तु का विशिष्ट सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना और ८. तत्त्वज्ञान - ऊहा| पोह के विशेष प्रकार के ज्ञान से विशुद्ध निश्चित ज्ञान प्राप्त करना । इस प्रकार शुश्रूषा से लेकर तत्त्वज्ञान तक के बौद्धिक गुण जो गृहस्थ प्राप्त कर लेता है; वह कभी अपना अकल्याण नहीं करता । अतः सद्गृहस्थ को यथासंभव इन आठों बुद्धि-गुणों को अपनाने चाहिए।
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१५. प्रतिदिन धर्म-श्रवण-कर्ता - सद्गृहस्थ को प्रतिदिन अभ्युदय और निःश्रेयस (मोक्ष) के कारण रूप धर्म के श्रवण में उद्यत रहना चाहिए । प्रतिदिन धर्म-श्रवण करने वालों का मन अशांति से अत्यंत दूर रहकर आनंद का अनुभव करता है। इसके लाभ बताये हैं कि धर्म - व्याख्यान का श्रवण उपयोगी है, यह सुभाषित है, घबड़ाये हुए व्यक्ति | की व्याकुलता दूर करता है, त्रिविध ताप से तपे हुए को शांत करता है, मूढ़ को इससे बोध प्राप्त होता है और अव्यवस्थित चंचल मन स्थिर हो जाता है। अतः प्रतिदिन धर्म-श्रवण जीवन में उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि में सहायक है। बुद्धि के गुणों में बताये हुए श्रवण (सुनने की इच्छा है, यहां सुनना ही है) में इतना सा अंतर है।
१६. अजीर्ण के समय भोजन छोड़ देना सद्गृहस्थ को अजीर्ण के समय भोजन छोड़ देना चाहिए। पहले किया हुआ भोजन जब तक हजम न हो, तब तक नया भोजन नहीं करना चाहिए। क्योंकि वैद्यकशास्त्र में बताया है कि अजीर्ण सब रोगों का मूल है और अजीर्ण (बदहजमी) के समय भोजन करने पर वह रोग को बढ़ाता है। अजीर्ण उसके चिह्नों | से जाना जा सकता है। मल और अपानवायु की सड़ान से उनमें बदबू आना, शरीर का भारी हो जाना, भोजन में अरुचि होना, खट्टी और खराब डकारें आना, ये अजीर्ण के चिह्न है।
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