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धर्माधिकारी - मार्गानुसारी के ३५ गुणों पर विवेचन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ४६ से ५६
| क्लेश- कलह होता है, परलोक में भी नरक मिलता है। 1 सच्चरित्र शुद्ध कुलीन गृहिणी के किसी परिवार में आने के | सुफल ये हैं - १. वह वधू की रक्षा करती है, २. सुपुत्रों को जन्म देती है, उन्हें संस्कारी बनाती है, ३. चित्त में अखंड शांति रहती है, ४. गृहकार्यों की सुव्यवस्था रखती है । ५. उससे श्रेष्ठ कुलाचार की विशुद्धि की सुरक्षा होती है । ६. देव, गुरु, अतिथि, बंधु-बांधव, सगे-संबंधी, मित्र आदि का घर में सत्कार होता है। इसी तरह वधू की रक्षा के उपाय बताते हैं - १. उसे घर के कार्यों में नियुक्त करना, २ . उसे यथोचित्त धन सौंपना, ३. उसे स्वच्छंदता से रोकना, स्वतंत्रता की ओर न मोड़ना, ४. उसे नारी - जन-समूह में मातृत्वतुल्य वात्सल्य देना और वैसा वात्सल्य - व्यवहार करना सिखाना ।
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४. पापभीरु • दृष्ट और अदृष्ट दुःख के कारण रूप कर्मों (पाप) से डरने वाला पापभीरु कहलाता है। उसमें चोरी, परदारागमन, जुआ आदि लोक- प्रसिद्ध (सात व्यसन) पापकर्म है, जो इस लोक में प्रत्यक्ष हानि पहुंचाने वाले हैं। सांसारिक विडंबनाएँ पैदा करने के कारण है। मद्यपान से अपार वेदना भोगनी पड़ती है, यह शास्त्रों में बताया गया है। हानि पहुँचाने के ये परोक्ष कारण हैं।
५. प्रसिद्ध देशाचार का पालक सद्गृहस्थ को शिष्ट-पुरुषों द्वारा मान्य, चिरकाल से चले आते हुए परंपरागत वेश-भूषा, भाषा, पोशाक, भोजन आदि सहसा नहीं छोड़ने चाहिए। अपने समग्र ज्ञातिमंडल के द्वारा मान्य प्रचलित विविध रीतिरिवाजों व क्रियाओं का अच्छी तरह पालन करना चाहिए। देश या जाति के आचारों का उल्लंघन | करने से उस देश और जाति के लोगों का विरोध होने से व्यक्ति उनका कोपभाजन तथा अकल्याण का कारण-भूत बनता
है।
६. अवर्णवादी न होना - अवर्णवाद का अर्थ है -निन्दा | सद्गृहस्थ को किसी का भी अवर्णवाद नहीं करना | चाहिए; चाहे वह व्यक्ति जघन्य हो, मध्यम हो या उत्तम । दूसरे की निंदा करने से मन में घृणा, द्वेष, वैरविरोध तो होगा ही, इससे अनेक दोषों के बढ़ने की भी संभावना है। दूसरे की निंदा और अपनी प्रशंसा करने से व्यक्ति नीच - गोत्र कर्मबंध करता है । जो अनेक जन्मों में उदय में आता है। वह नीचगोत्र करोड़ों जन्मों में भी नहीं छूटता। इस प्रकार | सामान्य जनसंबंधी अवर्णवाद (निंदा) जब हानिकारक है, तो फिर बहुजनमान्य राजा, मंत्री, पुरोहित आदि का तो कहना ही क्या? अतः ऐसे विशिष्ट लोगों की निंदा का खासतौर से त्याग करना चाहिए; क्योंकि उससे तत्काल विपरीत परिणाम आता है।
७. सद्गृहस्थ के रहने का स्थान सद्गृहस्थ के रहने का घर ऐसा हो, जहाँ आने-जाने के द्वार अधिक न | हो; क्योंकि अनेक द्वार होने से चोरी, जारी आदि का भय होता है। इसलिए अनेक द्वारों का निषेध करते हुए कहते हैं। कि 'गृहस्थ को कम द्वार वाले एवं सुरक्षित घर में रहना चाहिए और घर भी योग्य स्थान में हो। जहां हड्डियाँ आदि का ढेर न हो, तीक्ष्ण कांटे न हो तथा घर के आस-पास बहुत-सी दूब, घास, प्रवाल, पौधे, प्रशस्त वनस्पति उगी हुई हो। जहां मिट्टी अच्छे रंग की और सुगंधित हो, जहां का पानी स्वादिष्ट हो, ऐसे स्थान को प्रशस्त माना गया है। स्थान के गुण-दोष शकुनशास्त्र, स्वप्नशास्त्र या उस विषय के शास्त्र आदि के बल से जाने जा सकते हैं। इसी तरह स्थान का और भी विशेष वर्णन करते हैं- 'वह मकान न अतिप्रकट हो और न अतिगुप्त हो । अतिप्रकट होने से अर्थात् बिल्कुल खुली जगह में होने से उपद्रव की संभावना रहती है। और अतिगुप्त होने से चारों तरफ से घरों के कारण घिरा रहने से घर | की शोभा छिप जाती है। आग लगने पर ऐसे मकान से बाहर निकलना बड़ा कठिन होता है। फिर स्थान कैसा होना | चाहिए? तो कहा कि तीसरी बात, जो घर के संबंध में देखनी चाहिए, वह है-अच्छे सदाचारी पड़ौसी का होना। बुरे या गंदे आचरण वाले पड़ौसी, जिस घर के पास होंगे, वहां उनका वार्तालाप सुनकर उनकी
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1. वर्तमान में पुरुष मित्रों के साथ शील भंग करने वाली कन्या जिसने प्रायश्चित्त लेकर शुद्धि नहीं की वह कन्या बुरी स्त्री के अंतर्गत है । स्वेच्छा से शील भंग करने वाली कन्या को यह कथन लागु होता है।
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