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धर्माधिकारी मार्गानुसारी के ३५ गुणों पर विवेचन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ४६ से ५६ चेष्टाएँ देखकर, गुणी लोगों के गुणों की भी हानि हो जायेगी। शास्त्र में खराब पड़ोसी इस प्रकार के बताये गये हैंवेश्या, दासी, नपुंसक, नर्तक, भिक्षुक, मंगता, कंगाल, चांडाल, मछुआरा, शिकारी, मांत्रिक-तांत्रिक (अघोरी), नीचजातीय भील आदि। इस प्रकार के पड़ोसियों का होना अच्छा नहीं होता। इसलिए ऐसे पड़ोसियों के पास घर नहीं बनाना चाहिए। (ओघ नि. ४६७) [वर्तमान में शराबी, जूआरी, दाणचोर, नास्तिक आदि एवं टॉकीज के पास मकान नहीं |बनाना]
८. सदाचारी के साथ संगति - सद्गृहस्थ के लिए सत्संग का बड़ा महत्व है। जो इस लोक और परलोक में हितकर प्रवृत्ति करते हों, उन्हीं की संगति अच्छी मानी गयी है, जो खल, ठग, जार, भाट, क्रूर, सैनिक, नट आदि हों उनकी संगति करने से अपने शील का नाश होता है। नीतिकारों ने कहा है-'यदि तुम सज्जन पुरुषों की संगति करोगे तो तुम्हारा भविष्य सुधर जायेगा और दुर्जन का सहवास करोगे तो भविष्य नष्ट हो जायेगा। अव्वल (वास्तव में) तो संग (आसक्ति) सर्वथा त्याज्य है, लेकिन करना ही है तो सज्जन पुरुषों का संग करना चाहिए, क्योंकि सत्पुरुषों का संग औषध रूप होता है।
९. माता-पिता का पूजक - वही सद्गृहस्थ उत्तम माना गया है, जो तीनों समय माता-पिता को नमस्कार करता है; उनको परलोक-हितकारी धर्मानुष्ठान में लगाता है; उनका सत्कार-सन्मान करता है तथा प्रत्येक कार्य में उनकी आज्ञा का पालन करता है। अच्छे रंग और सुगंध वाले पुष्प-फलादि पहले उन्हें देकर बाद में स्वयं उपयोग करता है। उनको पहले भोजन करवाकर फिर स्वयं भोजन करता है। जो ऐसा नहीं करता उसके परिवार में विनय की परंपरा नहीं पड़ सकेगी; तथा वहाँ प्रायः उच्छृखल, अविनीत, बहुत बकझक करने वाले, कलहकारी बढ़ेंगे। इसलिए माता-पिता की सेवाभक्ति-पूजा प्रत्येक गृहस्थ को करनी चाहिए। माता को पहला स्थान इसलिए दिया गया है कि पिता की अपेक्षा माता अधिक पूजनीय होती है। इसलिए 'पिता-माता' नहीं कहकर 'माता-पिता' कहा जाता है और मां को प्रथम स्थान दिया जाता है। मनुस्मृति में कहा है कि 'दस उपाध्यायों के बराबर आचार्य होता है, सो आचार्यों के बराबर एक पिता
और हजार पिताओं के बराबर एक माता होती है। इस कारण माता का गौरव अधिक है। (यहां लौकिक उपाध्याय और आचार्य-समझना)
१०. जो उपद्रव वाले स्थान को शीघ्र छोड़ देता है - अपने राज्य या दूसरे देश के राज्य की ओर से भय हो, दुष्काल हो, महामारी आदि रोग का उपद्रव हो, महायुद्ध छिड़ गया हो, लोगों के विरोध होने से उस स्थान, गांव या नगर आदि में सर्वत्र अशांति पैदा हो गयी हो. रात-दिन लडाई-झगडा रहता हो तो सदगहस्थ को वह स्थान शीघ्र छोड़ देना चाहिए। यदि वह उस स्थान का त्याग नहीं करता है तो पहले के कमाये हुए धर्म, अर्थ और काम का भी विनाश कर बैठता है और नवीन उपार्जन नहीं कर सकने से अपने दोनों लोक बिगाड़ता है।
११. निंदनीय कार्य का त्यागी - सद्गृहस्थ को देश, जाति एवं कुल की दृष्टि से गर्हितनिंदित कार्य में प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर, देश की दृष्टि से गर्हित जैसे सौवीर देश में खेती और लाटदेश में मदिरापान, निंदनीय माने जाते हैं। जाति की अपेक्षा से 'ब्राह्मण का सुरापान करना, तिल, नमक आदि का व्यापार करना निंद्य माना जाता है। कुल की अपेक्षा से चौलुक्य वंश में मदिरापान निंद्य समझा जाता है। इस प्रकार देश, कुल और जाति की दृष्टि से ऐसे निंदनीय कार्य करने वाले लोग अन्य अच्छे धार्मिक कार्य करते हैं तो भी लोगों में हंसी के पात्र समझे जाते हैं। | [वर्तमान में ब्लू फिल्म का व्यापार, वाईन, मांस निर्यात आदि]
१२. आय के अनुसार व्यय करना - सद्गृहस्थ को सदा यह सोचकर ही खर्च करना चाहिए कि मेरी आय | कितनी है? उसे अपने परिवार के लिए, आश्रितों के भरण-पोषण के लिए, अपने निजी उपयोग के लिए तथा देवता
और अतिथियों के पूजन-सत्कार में द्रव्य खर्च करने से पहले यह देखना चाहिए कि मुझे अपनी खेती, पशुपालन या व्यापार आदि से कितनी आय है? यह देखकर ही तदनुसार खर्च करना चाहिए। नीतिशास्त्र में कहा गया है-'व्यापार आदि में जो कमाई हुई हो, तदनुसार ही दान देना, लाभ के अनुसार उपभोग करना और उचित रकम बचाकर अमानत
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