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धर्माधिकारी मार्गानुसारी के ३५ नैतिक नियमों पर विवेचन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ४७ से ५६
को भी यथायोग्य बांट सकता है। कहा है- 'अपने पुरुषार्थ और बल से उपार्जित करने वाला धीर पुरुष स्वाभिमानी | और प्रत्येक स्थान में पवित्र तथा निःशंक होता है और बुरा कार्य करने वाला तथा अपनी आत्मा को कुकर्म से मलिन करने वाला पापी प्रत्येक स्थान पर शंकाशील होता है।' नीतिमान गृहस्थ परलोक के हित के लिए अपने न्यायार्जित धन का विनियोग सप्त-क्षेत्र रूपी सत्पात्र कर सकता है तथा दीनों, अनाथों आदि पर अनुकंपा करके उन्हें दान दे | सकता है; किन्तु अन्याय से इकट्ठे किये हुए धन से तो दोनों लोकों में अहित ही होता है। अन्याययुक्त कार्य लोकविरुद्ध | होने से उसके कर्ता को इस लोक में वध, बंधन, अपकीर्ति आदि मिलते हैं; और परलोक में भी उक्त पाप से नरकादि दुर्गति में भ्रमण करना पड़ता है। कदाचित् किसी अन्याय-अनीतिमान व्यक्ति को पापानुबंधी पुण्यकर्म के योग से इस | लोक में विपत्ति नजर न आये; परंतु भविष्य में या आगामी भव में तो उस पर अवश्य ही विपत्ति आती है। कहा भी | है - 'अर्थ के मोह में अंधा बना हुआ जीव पापकर्म करके किसी भी समय उसका फल अवश्य प्राप्त करता है। कांटे में पिरोये हुए मांस के समान उसका नाश किये बिना उस पाप का अंत नहीं आता।' इसलिए न्यायवृत्ति एवं परमार्थदृष्टि | से धन उपार्जन करना ही श्रेष्ठ उपाय है, जिसके लिए कहा है- 'जैसे मेंढक जलाशयों की ओर एवं पक्षी पूर्ण सरोवर | की तरफ स्वतः खिंचे चले आते हैं, वैसे ही शुभकर्म वाले व्यक्ति के पास सभी संपत्तियां वशीभूत होकर चली आती । है।' 'गृहस्थ जीवन में धनवैभव प्रधान कारण होने से प्रथम 'न्यायसंपन्नविभिव' नाम का गुण बताया है।
२. शिष्टाचार - प्रशंसक •शिष्ट पुरुष वह कहलाता है, जो व्रत, तप आदि करता हो, ज्ञान वृद्धों की सेवा से | जिसे विशुद्ध शिक्षा मिली हो, विशेषतः जिसका सुंदर आचरण हो, उदाहरण के तौर पर वह लोकापवाद से डरता हो, | दीन-दुखियों का उद्धार करने वाला हो, प्रत्येक मनुष्य का आदर करता हो, कृतज्ञ हो और दाक्षिण्य-गुणों से युक्त हो । ( योगबिन्दु १२६ ) इन सब गुणों से युक्त पुरुष को सदाचारी ( शिष्ट) कहा जाता है। सद्गृहस्थ को उसके आचार-विचार | का प्रशंसक - समर्थक होना चाहिए । शिष्ट पुरुषों के आचार में ऐसा होता है- आपत्तिकाल में उत्तम स्थान को न छोड़े, | महापुरुषों का अनुसरण करे, जनप्रिय एवं प्रामाणिक (न्यायनीतियुक्त) वृत्ति से जीवन-निर्वाह करे; प्राणत्याग करने का | अवसर आये तो भी निंदनीय कार्य नहीं करे, दुर्जन से कभी याचना न करे, मित्रों से जरा भी धन नहीं मांगे। सचमुच | इस तरह का दुष्कर एवं असिधारा के समान कठोर व्रत का सज्जनों को किसने उपदेश दिया? अर्थात् सज्जनों ने ही उपदेश दिया है।
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३. समान कुल और शील वाले भिन्न गोत्रीय के साथ विवाह संबंध - पिता, दादा आदि पूर्वजों के वंश के समान ( खानदानी ) वंश हो; मद्य, मांस आदि दुर्व्यसनों के त्याग रूपी शील-सदाचार भी समान हो, उसे | समानकुलशील कहते हैं, उस प्रकार के कुल, शील युक्त वंश के एक पुरुष एक गोत्रीय कहलाते हैं, जबकि उनसे भिन्न गोत्र में जन्मे हुए भिन्न गोत्रीय कहलाते हैं। तात्पर्य यह है कि पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार समानकुलशील वाले भिन्न| गोत्रीय के साथ ही सद्गृहस्थ को विवाहसंबंध करना चाहिए। अग्नि ( एवं पंचों) की साक्षी से पाणिग्रहण करना विवाह | कहलाता है। वह विवाह लोक-व्यवहार में आठ प्रकार का कहा है- १. वस्त्राभूषण से सुसज्जित करके कन्यादान करना | ब्राह्म विवाह कहलाता है । २. वैभव का विनियोग करके कन्यादान करना प्राजापत्य विवाह है। ३. गाय, बैल आदि के | दानपूर्वक कन्यादान करना आर्ष विवाह है। ४. जिस विवाह में यज्ञ करने के हेतु यजमान याज्ञिक को दक्षिणा में | कन्यादान दे, वह दैव-विवाह है। ये चारों धर्म्यविवाह कहलाते हैं । ५. माता-पिता या भाई की अनुमति के बिना परस्पर के अनुराग से गुप्त रूप से प्रेम-संबंध जोड़ लेना गांधर्वविवाह कहलाता है। ६. किसी शर्त के बंधन में आकर कन्यादान | देना, असुर - विवाह है। [शादि के पूर्व दहेज मांगकर लेने वाले का विवाह असुर विवाह है] ७. बलात्कार से कन्या का | अपहरण करके विवाह कर लेना राक्षस विवाह है। और ८. सोयी हुई अथवा प्रमत्त दशा में पड़ी हुई कन्या का अपहरण | करके विवाह करना पिशाच विवाह है। ये चारों अधार्मिक विवाह हैं। यदि वर और कन्या दोनों की सम्मति से | प्रसन्नतापूर्वक विवाह हो तो वह अधार्मिक विवाह भी धार्मिक विवाह बन जाता है। उत्तम - कुलशील वाली शुद्ध कन्या | के साथ विवाह लाभदायक और सफल होता है। किन्तु बुरी स्त्री या पुरुष के साथ विवाह संबंध से इस लोक में भी
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