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अष्ट प्रवचन माता का मातृत्व एवं धर्माधिकारी के ३५ गुणों पर विवेचन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ४५ से ४६ से शरीर प्रमार्जन करे, किंतु दोनों समय में अतितीव्र निद्रा से शयन न करे। जहां रहे, वहां प्रमाणोपेत वसति में तीन हाथ परिमाण वाले प्रदेश में प्रत्येक साधु अपने पात्रादि तमाम उपकरणों को समाविष्ट कर दे। जिस आसन या स्थान पर बैठने की इच्छा हो, पहले उसे चक्षु से निरीक्षण कर रजोहरण से प्रमार्जन करे। बाहर का रजोहरण-संबंधी निशिथिया बिछाकर बैठे, बैठने के बाद भी पैर लंबे करने हों या सिकोड़ने हों तो पहले कहे अनुसार निरीक्षण व प्रमार्जन करे। चौमासे के काल में दर्भासन' व पट्टे आदि पर उपर्युक्त सामाचारी से बैठे। दंड आदि उपकरण का भी निरीक्षण करके प्रमार्जन करे। आवश्यक कार्य के लिए साधु को बाहर जाना हो तो आगे धूसर-प्रमाण प्रदेश में दृष्टि डालकर अप्रमादभाव से त्रस और स्थावर जीवों का रक्षण करते हए धीमी-धीमी गति से गमन करना प्रशस्त है. कायोत्सर्गस्थ होकर खड़े रहने के या सहारा लेकर बैठने के संस्तारक को पहले नजर डालकर पडिलेहण करना और फिर दंडासन से प्रमार्जन करना चाहिए। इन सभी चेष्टाओं पर नियंत्रण रखना और स्वच्छंदन चेष्टाओं का त्याग करना, दूसरे प्रकार की कायगुप्ति है ।।४।। ___ अब पांच समितियों और तीन गुप्तियों का आगम-प्रसिद्ध मातृत्व बताते हैं।४५। एताश्चारित्रगात्रस्य, जननात् परिपालनात् । संशोधनाच्च साधूनां, मातरोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ॥४५॥ . अर्थ :- उपर्युक्त पाँच समिति और तीन गुप्ति साधुओं के चारित्र-रूपी शरीर को माता की तरह जन्म देने से,
. उसका परिपालन करने से तथा उसकी अशुद्धियों को दूर करने के कारण व उसे स्वच्छ निर्मल रखने
के कारण 'आठ प्रवचन-माता' के नाम से प्रसिद्ध हैं ।।४५।। व्याख्या :- समिति और गुप्ति शास्त्र में आठ माताओं के नाम से प्रसिद्ध है। मातृत्व के कारण ये हैं-जैसे माता पुत्र के शरीर को जन्म देती है, दुग्धादि पिलाकर शरीर का रक्षण करती है और मल-मूत्र साफ करके बालकों को स्वच्छ रखती है; वैसे ही साधुओं के चारित्र रूपी शरीर को जन्म देने वाली, उपद्रव का निवारण करके पालन करने वाली, पोषण करके बढ़ाने वाली अतिचार से मलिन हो तो उसे साफ करके निर्मल करने वाली ये अष्टप्रवचनमाताएँ हैं।।४५।।
अब चारित्र का वर्णन करके उपसंहार करते हैं।४६। सर्वात्मना यतीन्द्राणामेतच्चारित्रमीरितम् । यति-धर्मानुरक्तानां, देशतः स्यादगारिणाम् ॥४६।। अर्थ :- उपर वर्णित महाव्रत और अष्ट प्रवचन माताएँ सर्वविरतिचारित्र धारण करने वाले मुनीन्द्रों के लिए हैं| __ और यति (साध) धर्म पर अति-अनुराग रखने वाले श्रमणोपासकों गृहस्थों के लिए तो देश से
(आंशिक) चारित्र होता है ॥४६॥ व्याख्या :- सर्वविरति और देशविरति ये दो प्रकार के चारित्र कहे हैं। समस्त सावध (पापकारी) व्यापारों का सर्वथा त्याग करना सर्वविरतिचारित्र है। वह सर्वविरतिचारित्र (श्रेष्ठ साधुधर्म) मूलगुण और उत्तरगुण-स्वरूप होता है। देशचारित्र के अधिकारी कौन है? इसके उत्तर में कहते हैं कि-धातुओं के अनेक अर्थ होने से यहां यह अर्थ भी गृहीत है कि देशविरति-गृहस्थ, देशविरतिचारित्रधारक होते हुए भी सर्वविरतिचारित्र में अत्यंत अनुरागी होना चाहिए। गृहस्थों का एक देश से (आंशिक) चारित्र होता है। गृहस्थ कैसा होता है? गृहस्थाश्रम में रहने से परिवार के पालनपोषण, आजीविका आदि प्रपंचों में ग्रस्त होने के कारण व संघयण आदि दोष के कारण वह सर्वविरति की आराधना नहीं कर सकता। कहा भी है-'देशविरति-परिणाम वाला श्रावक सर्व-विरति का अभिलाषी होता है। यतिधर्म के प्रति अनुराग के बिना गृहस्थ-श्रावकों का श्रावकव्रत तो संभव है, लेकिन समय-समय पर उनके व्रतों में अतिचार (दोष) लगने पर उसकी शुद्धि के लिए आलोचना, प्रायश्चित्त आदि तथा चेतावनी एवं अतिथिसंविभागव्रत का पालन भी सर्वविरति श्रमण के होने पर ही संभव है। इसलिए श्रमणोपासकों का श्रमणों से अनुबद्ध होना अनिवार्य है।।४६।। 1. वृषीपीठादिषूक्तयैव पेज नं. ६६ पत्राकार यो. शा. 2. इसी कारण आवश्यक चूर्णि में श्रावक को साधु का विहार जिस क्षेत्र में न हो वहां रहने का निषेध किया है।
- संपादक
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