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धर्माधिकारी-मार्गानुसारी के ३५ गुणों पर विवेचन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ४६ से ५६
१७. समय पर पथ्य-भोजन करना
सद्गृहस्थ के लिए यह आवश्यक है कि वह भूख लगने पर आसक्ति| रहित होकर अपनी प्रकृति, रुचि, जठराग्नि एवं खुराक के अनुसार उचितमात्रा में भोजन करे। यदि वह मात्रा से अधिक | भोजन करेगा तो उसे वमन, अतिसार या अजीर्ण आदि रोग होंगे और कभी मृत्यु भी हो सकती है। इसलिए मात्रा से अधिक खाना उचित नहीं है; परंतु भूख के बिना अमृत भी खाता है, तो भी वह जहर हो जाता है और क्षुधाकाल | समाप्त होने के बाद भोजन करेगा तो उसे भोजन पर अरुचि और घृणा होगी और शरीर में पीड़ा होगी। 'आग बुझ जाने के बाद ईंधन झौंकना व्यर्थ होता है।' आहार- पानी भी अपने शरीर की प्रकृति एवं खुराक के अनुकूल पथ्यकारक तथा | सुखपूर्वक ग्रहण करना 'सात्म्य' कहलाता है। इस प्रकार के सात्म्य रूप में जिंदगीभर मात्रा के अनुसार किया हुआ भोजन अगर विष भी हो तो वह एक बार तो हितकारी होता है। अतिसात्म्य खाद्य वस्तु भी जो पथ्य-रूप हो, उसी | का सेवन करे। रुचि के अनुकूल अपथ्य और अहितकारी वस्तु को सात्म्य समझकर भी सेवन न करे । 'शक्तिशाली के लिए सभी वस्तु हितकारी है;' ऐसा मानकर काल कूट विष न खाये । विषतंत्रज्ञाता और अत्यंत दक्ष व्यक्ति की भी किसी | समय विष से मृत्यु हो जाती है।
१८. परस्पर अबाधित रूप से तीनो वर्गों की साधना धर्म, अर्थ और काम; ये तीन वर्ग कहलाते है। जिससे अभ्युदय और मोक्ष की सिद्धि हो, वह धर्म है। जिससे लौकिक सर्व-प्रयोजन सिद्ध होते हों, वह अर्थ है और अभिमान से उत्पन्न, समस्त इंद्रिय सुखों से संबंधित रस युक्त प्रीति काम है । सद्गृहस्थ को इन तीनों वर्गों की साधना इस प्रकार से करनी चाहिए, कि ये तीनों वर्ग एक दूसरे के लिए परस्पर बाधक न बनें। परंतु तीनों में से केवल किसी एक की या | किन्हीं दो की साधना करना उचित नहीं है । नीतिकार भी कहते हैं - 'त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ काम इन तीनों वर्गों की | परस्पर अविरोधी - रूप से साधना किये बिना जिसका दिन व्यतीत होता है, वह पुरुष लौहार की धौंकनी के समान श्वास | लेते हुए भी जीवित नहीं है। यदि कोई इन तीनों में धर्म की उपेक्षा करके केवल तत्त्वहीन (अतथ्य) सांसारिक विषयसुख़ों में लुब्ध बनता है, वह जंगली हाथी के समान आफत का शिकार बनता है, क्योंकि जो धर्म और अर्थ से उदासीन | होकर केवल विषयभोगों में ही अत्यंत आसक्त रहेगा; वह धर्म, अर्थ और शरीर तीनों को खोकर पराधीन एवं दुःखी हो जायेगा । इसी प्रकार जो धर्म और काम का अतिक्रमण करके केवल अर्थोपार्जन में ही लगा रहता है, वह जीवन का सच्चा आनंद नहीं प्राप्त कर पाता न ही मानसिक शांति पाता है। अंततोगत्वा, उसके धन का उपभोग दूसरे करते है। दामाद, हिस्सेदार, सरकार या अन्य लोग उसके धन पर कब्जा जमा लेते हैं। उसके तो सिर्फ मेहनत ही पल्ले पड़ती है। जैसे सिंह, हाथी का वध करके केवल पाप का भागी बनता है, वैसे वह भी केवल पाप का अधिकारी बनता है। अर्थ और काम का अतिक्रमण करके केवल धर्म का सेवन भी गृहस्थ के लिए उचित नहीं, क्योंकि उसे अपने सारे परिवार, समाज व देश के प्रति कर्तव्यो का भी पालन करना है। यदि वह एकांत धर्मक्रिया में लग जायेगा तो गैरजिम्मेदार | बनकर दुःखी होगा। अपनी रोटी के लिए भी उसे दूसरों का मुंह ताकना पड़ेगा। इसलिए साधु तो सर्वथा धर्म का सेवन कर सकते हैं; लेकिन गृहस्थ सर्वथा धर्म का पालन करने में प्रायः असमर्थ होता है। वह श्रमणों की उपासना व | सेवाभक्ति कर सकता है। इसीलिए धर्म में रुकावट न आये, इस प्रकार अर्थ और काम का सेवन करे। बोने के लिए | सुरक्षित बीजों को खा जाने वाला किसान समय पर बीज न रहने के कारण सपरिवार दुःखी होता है, वैसे ही वर्तमान में धर्माचरण न करने वाला व्यक्ति भविष्य में सुखद फल या कल्याण प्राप्त नहीं कर पाता । वास्तव में वही व्यक्ति सुखी कहलाता है; जो अगले जन्म के सुख में बाधा न पहुंचे, इस प्रकार से इस लोक के सुख का अनुभव करे। इस तरह अर्थोपाजन करना बंद करके जो धर्म और काम का ही सेवन करता है; वह कर्जदार बन जाता है। काम को छोड़कर जो केवल धर्म और अर्थ का सेवन करता है; वह गृहस्थ मनहूस बन जाता है, उसके घर के लोग असंतुष्ट रहते हैं। इस | कारण काम - पुरुषार्थ की सर्वथा उपेक्षा करने वाला गृहस्थ-अवस्था में टिक नहीं सकता। धर्म, अर्थ और काम इन तीनों
में से प्रत्येक के एकांतसेवी गृहस्थ तादात्विक, मूलहर और कदर्य के समान अपने जीवन के विकास में स्वयं रुकावट | डालते हैं। तादात्मिक उसे कहते हैं, जो बिना सोचें - विचारें उपार्जित धन को खर्च कर डालता है। मूलहर उसे कहते हैं। जो बाप-दादों या अन्य पूर्वजों से प्राप्त धन का अनीति पूर्ण ढंग से उपभोग करके खत्म कर देता है। कदर्य उसे
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