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धर्माधिकारी-मार्गानुसारी के ३५ गुणों पर विवेचन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ४६ से ५६ व्यक्ति लोगों में उद्वेग पैदा कर देता है, उसका प्रभाव क्षणिक होता है। जबकि सौम्य व्यक्ति से सभी आकृष्ट होते हैं, कोई भयभीत नहीं होता बल्कि प्रभावित हो जाता है।
___३३. परोपकार करने में कर्मठ - सद्गृहस्थ को परोपकार के कार्य भी करने चाहिए। उसे केवल अपने ही स्वार्थ में रचापचा नहीं रहना चाहिए। परोपकारवीर एवं परोपकारकर्मठ मनुष्य सभी के नेत्रों में अमृतांजन के समान होता है।
३४. षट् अंतरंग शत्रुओं के त्याग में उद्यत - सद्गृहस्थ सदा छह अंतरंग शत्रुओं को मिटाने में उद्यत रहता. है। शिष्ट गृहस्थों के लिए १. काम, २. क्रोध, ३. लोभ, ४. मान, ५. मद और ६. हर्ष या मत्सर; ये छह अंतरंग शत्रु कहे हैं। दूसरे की परिणीता अथवा अपरिणीता स्त्री के साथ सहवास की इच्छा करना काम है। अपनी अथवा परायी हानि का सोच-विचार किये बिना कोप करना क्रोध है। दान देने योग्य व्यक्ति को दान न देना तथा अकारण पराया धन ग्रहण करना लोभ है। किसी के योग्य उपदेश को दुराग्रहवश नहीं मानना मान है। बिना कारण दुःख देकर तथा जुआ, शिकार आदि अनर्थकारी कार्यों में आनंद मानना हर्ष कहलाता है। किसी की उन्नति देखकर कुढ़ना, उससे डाह करना, मत्सर है। ये छहों हानिकारक होने से इनका त्याग करना चाहिए। कहा है कि-१. काम से ब्राह्मण कन्या को, बलात्कार से सताने वाला दांडक्य नाम का भोज बंधुओं और राज्य के सहित नष्ट हुआ। तथा वैदेह कराल भी नष्ट हुआ। २. क्रोध से ब्राह्मणों पर आक्रमण करने वाला जनमेजय और भृगुओं पर आतंक ढहाने वाले तालजंघ का भी विनाश हुआ। ३. लोभ से चारों वर्गों का सर्वस्व हड़प जाने वाले ऐल (पुरूरवा) और सौवीरदेश के अजबिन्दु का विनाश हुआ। ४. मान से परस्त्री को वापिस न करने के कारण रावण और दुर्योधन का विनाश हुआ। ५. मद से अंभोद्भव और भूतावमानी हैहय (कार्तवीर्य) अर्जुन का विनाश हुआ। ६. हर्ष से अगत्स्य को प्राप्त करने से वातापि और द्वैपायन को प्राप्त न करने के कारण श्रीकृष्णजी के समुदाय का नाश हुआ।
३५. इंद्रिय-समूह को वश करने में तत्पर – सद्गृहस्थ को अपने इंद्रिय-समूह को यथोचित्त मात्रा में वश में करने का अभ्यास करना चाहिए। जो इंद्रियों की स्वच्छंदता का त्याग करता है; उन पर अत्यंत आसक्ति को छोड़ता है, तथा स्पर्शादि विकारों को रोकता है; वही इंद्रियों पर विजय प्राप्त करता है। ऐसा व्यक्ति महासंपत्ति को प्राप्त करता है। कहा भी है
आपदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयमः । तज्जयः सम्पदा मार्गा, येनेष्टं तेन गम्यताम् ॥ 'इंद्रियों का असंयम, विपत्तियों का मार्ग है और उन पर विजय प्राप्त करना संपत्तियों का मार्ग है। इन दोनों में से जो मार्ग ईष्ट (हितकर) लगे, उसी मार्ग से जाओ।' ये इंद्रियाँ जीवन-सर्वस्व है। ये ही स्वर्ग और ये ही नरक है। दोनों ये ही है। जो इन्हें वश में कर लेता है, उसे स्वर्ग मिलता है और जो स्वच्छंदता पूर्वक इनको विपरीत मार्ग पर जाने देता है, उसे नरक मिलता है। सर्वथा इंद्रिय-निरोध-धर्म तो साधुओं के लिए ही संभव है। यहां तो श्रावकधर्म की भूमिका प्राप्त करने के पहले धर्म-मार्गानुसारी सद्गृहस्थ का प्रसंग है। इसलिए यथोचित मात्रा में इंद्रिय-संयम करना उसके लिए आवश्यक बताया है।
इन उपर्युक्त पैतीस गुणों से युक्त सद्गृहस्थ श्रावकधर्म के योग्य अधिकारी बनता है।।४७-५६।। ॥ इस प्रकार परमात श्री कुमारपाल राजा की जिज्ञासा से आचार्यश्री हेमचंद्रसूरीश्वर रचित
अध्यात्मोपनिषद् नामक पट्टबद्ध अपरनाम योगशाल का
स्वोपज्ञविवरणसहित प्रथम प्रकाश संपूर्ण हुआ ।
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