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अष्ट प्रवचन माता का स्वरूप
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ३९ से ४१ साधु को छह कारणों से आहार करना चाहिए-१. क्षुधा-भूख सहन न होने पर, २. आचार्यादि बड़ों की सेवाभक्ति करने के लिए, ३. ई-समिति आदि आठ प्रवचन-माता का अच्छी तरह पालन करने के लिए, ४. प्रेक्षाउत्प्रेक्षा-संयम के पालन के लिए, ५. प्रबाध-जठराग्नि के उदय से प्राणों की रक्षा के लिए, ६. आर्त्तरौद्रध्यान का त्याग करके धर्मध्यान में स्थिरता लाने के लिए। इन ६ कारणों से साधु आहार करे। इनके अलावा और किसी कारण से आहार करे तो उसे पांचवां कारणाभाव नाम का दोष लगता है। कहा भी है कि-'उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजन, अप्रमाण, अंगार, धूम और कारणाभाव नामक आहार-दोषों से रहित पिंड (आहार) का शोधन, अन्वेषण और बारीकी से विश्वलेषण करते हुए आहारादि में प्रवृत्ति करने हेतु मुनियों के लिए एषणासमिति बतायी है ।।३८।। ___ अब चौथी आदान-निक्षेप-समिति का निरूपण करते हैं|३९। आसनादीनि संवीक्ष्य, प्रतिलिख्य च यत्नतः । गृणीयानिक्षिपेद्वा, यत् साऽऽदानसमितिः स्मृता ॥३९।। अर्थ :- आसनादि को दृष्टि से भलीभांति देखकर और रजोहरण आदि से प्रमार्जन कर यतनापूर्वक लेना अथवा
रखना आदाननिक्षेपसमिति कहलाती है ।।३९।। व्याख्या :- बैठने की भमि या पाट ये आसन कहलाते हैं। आदि शब्द से वस्त्र, पात्र. पट्टा. दंड आदि उपकरणों को ग्रहण करना चाहिए। आशय यह है कि साधु के पास जो भी धर्मोपकरण हों; उन्हें आंखों से भलीभांति दिन में | देखकर, रात्रि को आंखों से जीवजन्तु न दीखें तो रजोहरण से या गुच्छक आदि से यतना पूर्वक प्रमार्जन करके पैर उठाना या रखना चाहिए। इस तरह न किया जाय तो अच्छी तरह प्रतिलेखना नहीं होती। शास्त्र में कहा है कि-'प्रतिलेखना करते समय परस्पर बातें करे, देश कथादि करे प्रत्याख्यान कराये, स्वयं वाचना दे या दूसरे से वाचना ले, तो वह साधक पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस काय के जीवों का विराधक है और प्रतिलेखना में प्रमादी है।' (ओघ नि. २७३-२७४) इसलिए जो कुछ भी उपकरण उठाए या रखें जाय, पहले उस पर दृष्टिपात करे, बाद में ओघे (रजोहरण) से उसका प्रमार्जन करे फिर उसे ग्रहण करे या रखे। इस प्रकार की प्रवृत्ति को आदान-निक्षेप-समिति कहते हैं। जैसे भीमसेन का संक्षेप में 'भीम' नाम से प्रयोग किया जाता है; वैसे ही यहां इस समिति के विस्तृत नाम का संक्षिप्त 'आदान' शब्द से प्रयोग किया गया है ।।३९।।
अब पांचवीं उत्सर्ग-समिति का विवरण प्रस्तुत करते हैं।४०। कफ-मूत्र-मलप्रायं, निर्जन्तुजगतीतले । यत्नाद्यदुत्सृजेत् साधुः, सोत्सर्गसमितिर्भवेत् ॥४०॥ अर्थ :- साधु जो कफ, मल, मूत्र आदि परिष्ठापन करने (डालने या फैकने) योग्य पदार्थों को जीव-जंतु-रहित
जमीन पर यतना विधिपूर्वक त्याग (परिष्ठापन) करते हैं, वह उत्सर्गसमिति है ।।४०॥ व्याख्या :- मुख, नाक आदि से निकलने वाले कफ और श्लेष्म, मूत्र, विष्ठा आदि प्रायः शरीर के दूषित व फेंकने या डालने योग्य पदार्थ है। 'प्रायः' शब्द से परिष्ठापन-योग्य टूटे-फूटे या अवशिष्ट वस्त्र, पात्र, भोजन पानी आदि समझने चाहिए। इन सब का त्रस-स्थावर-जंतु से रहित अचित्त पृथ्वीतल पर धूल या रेती में यतना से उपयोगपूर्वक उत्सर्ग करना; उत्सर्गसमिति कहलाती है।
अब तीन गुप्तियों में से प्रथम मनोगुप्ति के संबंध में कहते हैं।४१। विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनस्तज्ज्ञैर्मनोगुप्तिरुदाहृता ॥४१॥ अर्थ :- मन की कल्पना-जाल से मुक्ति, समभाव में स्थिरता और आत्म स्वरूप के चिंतन में रमणता के रूप
में रक्षा करने को पंडित पुरुषों ने मनोगुप्ति कही है ।।४१।। . व्याख्या :- यहां मनोगुप्ति (मन की दुष्प्रवृत्तियों से रक्षा) तीन प्रकार की बतायी गयी है-१. आर्तध्यान और रौद्रध्यान के फल स्वरूप उठने वाले कल्पनाजाल से मन का वियोग कराना, २. शास्त्रानुसारी, परलोक-साधक, धर्मध्यान करने वाली मध्यस्थ-परिणति या समता में मन को प्रतिष्ठापित करना, ३. कुशल-अकुशल मनोवृत्ति को रोककर योग-निरोध अवस्था पैदा करने वाली आत्मरमणता अर्थात् आत्मभाव में मन को लीन करना। इस दृष्टि से मनोगुप्ति
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