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भिक्षाचरी के १० एषणादोष
७. क्रोधापिंड
८. मानपिंड
१२. विद्यापिंड
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अपनी लब्धि, विद्या, प्रभाव आदि की प्रशंसा करके और छिछोरपन से, अगंभीर रूप से या क्षुद्र रूप से दूसरों से प्रशंसा करवाकर अथवा अमुक गृहस्थ की निंदा कर या करवाकर, अभिमान करके लिया हुआ आहार मानपिण्डदोष कहलाता है।
९. मायापिंड
भिक्षा के लिए अलग-अलग वेश धारण करके या भाषा को बदलकर आहार लेना मायापिंडदोष माना गया है।
१०. लोभपिंड
स्वादिष्ट आहार की अतिलालसा से भिक्षा के लिए इधर-उधर घूमना लोभपिंडदोष माना गया है।
११. पूर्वपश्चात्संस्तवपिंड - साधु जहां आहार आदि लेने जाये, वहां उसके पूर्व परिचय वाले माता-पिता और पश्चात् परिचय वाले सास, श्वसुर आदि की प्रशंसा करके या अपने साथ उनके संबंध का परिचय देकर लिया हुआ आहार पूर्व-पश्चात्संस्तव - पिंड है।
विद्या, मंत्र, चूर्ण और योग इन चारों का भिक्षाप्राप्ति के लिए उपयोग करे तो वह विद्यादिपिंड कहलाता है। स्त्री-देवता से अधिष्ठित मंत्र, जप या होमादि से जो सिद्ध किया जाय, वह विद्या कहलाती है। इस प्रकार की विद्या का उपयोग करके आहार लेना विद्यापिंड - दोष है। उच्चारण मात्र से सिद्ध होने वाला पुरुष - देवता - अधिष्ठित शब्द समूह मंत्र कहलाता है। अतः मंत्र का प्रयोग करके आहार लेना मंत्रपिंड कहलाता है।
१. शंकित
२. प्रक्षित
३. निक्षिप्त
४. पिहित ५. संहृत
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१३. मंत्रपिंड़
१४. चूर्णपिंड
१५. योगपिंड
१६. मूलकर्मपिंड
कुछ दोष गृहस्थ और साधु दोनों के निमित्त से लगते हैं; उन्हें एषणा - दोष कहते हैं।
एषणादोष के दस भेद हैं
१. शंकित, २. प्रक्षित, ३. निक्षिप्त, ४. पिहित, ५. संहृत, ६. दायक, ७. उन्मिश्र, ८. अपरिणत, ९. लिप्स, १०. छर्दित। (पि. नि. ५२० )
इनका वर्णन इस प्रकार से है
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योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ३८
विद्या, तप आदि का प्रभाव बताकर या मेरी पूजा राजा की ओर से होती है, ऐसा कहकर गृहस्थों पर कोप करके या आहार नहीं दोगे तो मैं श्राप दे दूंगा इत्यादि प्रकार से धौंस बताकर आहार आदि लेना क्रोधपिंड दोष कहलाता है।
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जिस चूर्ण के प्रभाव से आंखों में अंजन करने से अदृश्य हो जाय या और कोई प्रभाव हो; ऐसे चूर्ण को लगाकर या गृहस्थ को ऐसा चूर्ण देकर आहारादि लेना चूर्णपिंड दोष कहलाता है। सौभाग्य या दुर्भाग्य करने वाला लेप पैरो पर लगाकर विस्मय पैदा करना योग कहलाता है। उसका प्रयोग कर आहारादि ग्रहण करना योगपिंड दोष कहलाता है।
गर्भ-स्तंभन, गर्भधारण, प्रसव, रक्षाबंधन (कवच ) आदि करके आहार आदि लेना मूलकर्मपिंड दोष है।
आधाकर्मादिक दोष की शंका होने पर भी आहार आदि ग्रहण करे तो वहाँ शंकित दोष लगता है।
पृथ्वी, जल, वनस्पति आदि सचित्त पदार्थों का रक्त, मद्य, मांस, चर्बी आदि खराब अचित्त पदार्थों के साथ मिश्रित किये हुए अथवा उनसे लिप्त आहारादि जानकर ले तो वहाँ प्रक्षित दोष है । पृथ्वीकायादि छह काय से युक्त सचित पदार्थों पर रखा हुआ आहारादि ले तो वहां निक्षिप्त दोष होता है।
सचित्त फल-फूल आदि से ढका हुआ आहार आदि ले, तो वहां पिहित दोष होता है।
देने के बर्तन में से जो खाद्य बेकार व अयोग्य हो उसे निकालकर अथवा सचित्त पृथ्वी आदि
में डाला हुआ भोजनादि दूसरे बर्तन में डालकर दे और साधु ले ले तो वहां संहृत दोष माना गया है।
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