________________
भिक्षाचर्या का स्वरूप-गोचरी समय के दोष
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ३० ६. दायक - अत्यंत छोटा बालक हो, बूढ़ा हो, नपुंसक हो या जिसके हाथ-पैर कांप रहे हो, बुखार आ रहा
हो, अंधा हो, अहंकारी या पागल हो या जिसके हाथ पैर कटे हुए हो, बेड़ी से जकड़ा हो, जो कूट रहा हो, पीस रहा हो, भुन रहा हो, सागभाजी आदि सुधार रहा हो, रुई आदि पीज रहा हो. बीज बो रहा हो, भोजन कर रहा हो, षड्जीवनिकाय की विराधना कर रहा हो। ऐसे दाता से साधु आहारादि ले-तो, दायक-दोष लगता है। थोड़े समय में प्रसूति होने वाली स्त्री, बालक को गोद में उठायी स्त्री, बालक को दूध पिलाती स्त्री इत्यादि के हाथों से आहारादि ले तो भी
दायकदोष लगता है। ७. उन्मिश्र - देने योग्य द्रव्य, खांड, शक्कर आदि पदार्थ सचित्त धान्य आदि से मिला हो और उस आहार को
लेवे तो वह उन्मिश्र दोष है। ८. अपरिणत - पूरी तरह से अचित्त हुए बिना कोई भी पदार्थ साधु को देने पर वह ले ले तो, वहाँ अपरिणत
दोष लगता है। ९. लिस - चर्बी आदि से लिप्त हाथ या भोजन आदि के हाथ से देवे तो वहां लिप्त दोष होता है। १०. छर्दित - तेल, घी, दूध, दही आदि के छींटे जमीन पर गिराते हुए दाता आहार दे और साधु ले ले तो|
___ वहां छर्दितदोष होता है; क्योंकि मधुबिन्दु की तरह नीचे गिरने से वहां कई जीवों की विराधना |
होने की संभावना है। इस प्रकार उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोष कुल मिलाकर बयालीस होते हैं। इन दोनों से अदूषित, अशन, खाद्य आदि ग्रहण करना; उपलक्षण से सौवीर आदि का पानी तथा रजोहरण, मुखवस्रिका, चोलपट्ट आदि वस्त्र-पात्र वगैरह स्थविरकल्पियों के योग्य चौदह प्रकार की औधिक उपधि (उपकरण) जिनकल्पियों के योग्य बारह प्रकार की उपधि, साध्वियों के योग्य पच्चीस प्रकार की और औपग्रहिक संथारा (आसन), पाट, पट्टे, बाजोट, चर्मदण्ड, दण्डासन आदि उक्त दोषों से अदूषित हों, उन्हें ग्रहण करना एषणासमिति है। रजोहरण आदि औधिक उपकरण तथा पट्टे, पाट, पाटला, बाजोट, शय्या, चौकी आदि औपग्रहिक उपकरण के बिना सर्दी, गर्मी और वर्षाकाल में ठंड, धूप, वर्षा आदि से गीली या नम भूमि पर महाव्रत का रक्षण करना अशक्य है। अतः आहारादि सहित ये सब जीवनोपयोगी आवश्यक वस्तुएँ पूर्वोक्त दोषों से रहित हों, निर्दोष, कल्पनीय और विशुद्ध हो; उन्हें ही ग्रहण करने हेतु मुनि शोध करे उसे एषणा कहते हैं। आगम में कथित विधि के अनुसार आहारादि का अन्वेषण करना; उसके विषय में सम्यक् प्रकार के उपयोग पूर्वक यतना से प्रवृत्ति करना भी एषणा-समिति है। गवेषणा और ग्रासैषणा के भेद से यह एषणा दो प्रकार की है। ग्रासैषणा का अर्थ है-आहार-मंडली में बैठकर साधु-साध्वी आहार का ग्रास मुंह में ले; उस समय भी निम्नोक्त पांच दोष वर्जित करने चाहिए। वे पांच दोष इस प्रकार से हैं
१. संयोजना, २. प्रमाणातिरिक्ततता (अप्रमाण), ३. अंगार, ४. धूम और ५. कारणाभाव।
आहार को स्वादिष्ट और चटपटा या रसदार बनाने के लोभ से गोचरी में आयी हुई खाद्यवस्तुओं के साथ खांड, घी या गर्म मसाला आदि (स्वादिष्ट बनाने के योग्य) दूसरे पदार्थ उपाश्रय में या बाहर मिलाकर उन्हें स्वादिष्ट अथवा चटपटी बनाना प्रथम संयोजना-दोष है। धृति, बल, संयम तथा मन, वचन और काया का योग स्थिर रहे; शरीर का निर्वाह हो सके, उतनी ही मात्रा में आहार करना चाहिए। मात्रा से अधिक आहार करने पर वमन आदि अनेकों व्याधियाँ |
और किसी समय मृत्यु तक हो जाती है। अतः प्रमाण से अधिक आहार करने पर दूसरा प्रमाणातिरिक्तता या अप्रमाण दोष लगता है। भोजन करते समय मिष्टान्न आदि स्वादिष्ट पदार्थों की या उन पदार्थों के दाता की प्रशंसा करना कि अहा! | यह कितना सुंदर है! कैसा स्वादिष्ट है! वह दाता कितना उदार है! इस प्रकार के कथन में राग रूपी आग पालन किये हुए चारित्र रूपी इंधन को अंगारें बना देती है। इस कारण तीसरे दोष को अंगारदोष बताया है। अस्वादिष्ट या नीरस आहार की या उसके देने वाले की निंदा करते हुए आहार करे तो साधु को चौथा धूम्रदोष लगता है। जिस प्रकार धुंआ महल की चित्रशाला को काला कर देता है, वैसे ही साधु निन्दा रूपी धुंएँ से चारित्र रूपी महल या चित्रशाला को दूषित कर देता है।