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भिक्षाचर्या स्वरूप-उद्गम दोष
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ३७ से ३८ ।३७। अवद्यत्यागतः सार्वजनीनं मितभाषणम् । प्रिया वाचंयमानां सा भाषासमितिरुच्यते ॥३७॥ अर्थ :- वचन पर संयम रखने वाले या प्रायः मौनी साधकों द्वारा निर्दोष, सर्व हितकर एवं परिमित, प्रिय एवं
. सावधानी पूर्वक बोलना भाषासमिति कहलाती है ॥३७॥ व्याख्या :- वाक्यशुद्धि नामक (दशवैकालिक सूत्र के सातवें) अध्ययन में प्रतिपादित भाषा-दोष के अनुसार 'तूं धूर्त है, तूं कामी है, तूं मांस खाने वाला है, तूं चोर है या नास्तिक है', इत्यादि दुर्वचनों का निष्कपटभाव से त्याग करना चाहिए और वचनशुद्धि-युक्त भाषा बोलनी चाहिए। सभी लोगों के लिए हितकारी, प्रिय,परिमित वाणी भी ऐसे बोले, जो पर्याप्त प्रयोजन को सिद्ध करने वाली हो। कहा भी है-'वही वचन बोलना चाहिए, जो मधुर हो, बुद्धियुक्त हो, अल्प हो, कार्यसाधन के लिए यथावश्यक, गर्व-रहित, उदार, आशायुक्त, बुद्धि से पहले धारण किया हुआ और धर्म-युक्त हो। [उपदेश ८०] इस प्रकार की वाणी को भाषा-समिति कहते हैं अथवा बोलने में सम्यक् प्रकार से सावधानी रखना, भाषासमिति है। इस तरह की भाषा मुनियों को इष्ट होती है। शास्त्रों में बताया गया है कि बुद्धिशाली साधक उस भाषा को न बोले जो सत्यमृषा हो, या मृषा हो और पंडितों द्वारा आचरित न हो (दश. ७/२)।।३७।।
अब तीसरी एषणासमिति का वर्णन करते हैं।।३८। द्विचत्वारिशता-भिक्षादोषैनित्यमदूषितम् । मुनिर्यदन्नमादत्ते, सैषणा-समितिर्मता ॥३८।।
अर्थ :- मुनि हमेशा भिक्षा के ४२ दोषों से रहित जो आहार-पानी ग्रहण करता है, उसे एषणा-समिति कहते हैं।
व्याख्या :- भिक्षा में लगने वाले ४२ दोषों को तीन विभागों में बांटा गया है-(अ) उद्गम-दोष, (ब) उत्पादनदोष और (स) एषणा-दोष ।।३८।। (पि. नि. ९२-९३)
इसमें प्रथम उद्गम के सोलह दोष गृहस्थों द्वारा लगते हैं। वे इस प्रकार से है
१. आधाकर्म, २. औद्देशिक, ३. पूतिकर्म, ४. मिश्रजात, ५. स्थापना, ६. प्राभृतिका, ७. प्रादुष्कर, ८. क्रीत, ९. प्रामित्यक, १०. परिवर्तित, ११. अभ्याहृत, १२. उद्भिन्न, १३. मालापहृत, १४. आच्छेद्य, १५. अनिसृष्ट और १६. अध्यवपूरक। १. आधाकर्म - मन में साधु मुनिराज का संकल्प करके सचित्त को अचित्त बनाएँ अथवा अचित पदार्थ भी साधु
के लिए पकाएँ और इस प्रकार का आहार साधु ग्रहण करे तो वहां आधाकर्मी दोष लगता है। २. औद्देशिक - अमुक साधु को ही उद्देश्य करके बनाने का संकल्प करे और तैयार किये हुए लड्डू, चावल,
रोटी, दाल आदि को गृहस्थ घी, शक्कर, दही, मसाले आदि से विशेष स्वादिष्ट बनाये, ऐसे
आहार को लेने से औद्देशिक दोष लगता है। ३. पूतिकर्म - शुद्ध निर्दोष आहार को साधुओं को देने की इच्छा से आधाकर्मी आहार में मिलाये, वह पूतिकर्म
दोष होता है। ४. मिश्रजात - अपने और साधुओं के उद्देश्य से यह सोचकर कि हम भी खाएँगे और साधु भी खाएँगे; इस
विचार से बनाये आहार को लेने में मिश्रदोष माना है। ५. स्थापना - खीर, लड्डू, पेड़े आदि बनाकर साधुओं को देने की भावना से अलग रखे, उसे ले ले तो वहां
स्थापित दोष लगता है। ६. प्राभृतिका - उत्सव, विवाह आदि कुछ दिनों बाद होने वाला है; किन्तु अभी साधु यहां है, उनके भी उपयोग
में जायेगा; इस बुद्धि से उस उत्सव आदि के प्रसंग को अभी चालू कर लें; इस नीयत से जहां आहारादि बनाकर साधु को दिया जाय उसे आगम-परिभाषा में प्राभृतिका दोष कहा है। अथवा उत्सव-प्रसंग निकट आ गया हो, लेकिन यह सोचकर कि जब साधु आयेंगे, तभी यह उत्सव मनाएँगे, ताकि आहारादि देने का लाभ मिलेगा, ऐसा विचारकर उस प्रसंग को आगे ठेल दे, वहां
भी यह दोष लगता है। ७. प्रादुष्करण - अंधेरे में पड़ी हुई वस्तु को आग या दीपक के प्रकाश से ढूँढकर अथवा दीवार या पर्दे को तोड़
कर बाहर लाना या प्रकट करना प्रादुष्करण दोष है।
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