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अष्ट प्रवचन माता का स्वरूप
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ३२ से ३४
| क्योंकि स्त्रियों के सौन्दर्य एवं लावण्य से युक्त मनोहर अंगोपांगों के देखने से मन चलायमान हो जाता है; जैसे पतंगा | दीपशिखा पर गिरने से नष्ट हो जाता है, वैसे ही राग पूर्वक देखने वाला कामाग्नि-शिखा में भस्म हो जाता है। राग| द्वेष-रहित भाव से यदि दिखाई दे तो उसमें कोई दोष नहीं है। कहा भी है- 'चक्षु के दृष्टिपथ में आये हुए रूप विषय का न देखना अशक्य है। परंतु विवेकी पुरुष को उस रूप में राग-द्वेष नहीं करना चाहिए।' इसी प्रकार अपने शरीर को स्नान, विलेपन, शृंगार आदि से विभूषित करने, सजाने, धूप देने, नख, दांत आदि चमकीले बनाने; केशों को भलीभांति संवारने या प्रसाधन आदि करने, विविध रूपों से साजसज्जा का, शृंगार - संस्कारित करने का त्याग करना | चाहिए। अपवित्र शरीर के संस्कार में मूढ़ बना हुआ मनुष्य उन्माद पूर्ण विचारों से अपनी आत्मा को व्यर्थ ही क्लेश के गर्त में गिराता है। इस प्रकार स्त्रियों के रम्य अंगों की ओर राग पूर्ण दृष्टि करने तथा अपने अंग को शृंगारित करने का त्याग करना चौथी भावना के अंतर्गत है । इसी प्रकार स्वादिष्ट, वीर्यवर्द्धक, पुष्टिकारक, मधुर रस- संयुक्त आहार | का तथा रस रहित आहार होने पर भी अधिक मात्रा में करने का त्याग करना चाहिए। अर्थात् रूखा-सूखा भोजन भी गले तक ठूंसकर नहीं खाना चाहिए। इस तरह ब्रह्मचारी को दोनों प्रकार के आहार का त्याग करना चाहिए। सदा पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक, स्वादिष्ट, स्निग्ध, रसदार आहार सेवन करने से, वह शरीर में प्रधान धातु को विशेष पुष्ट करता है और उससे वेदोदय जाग्रत होता है; जिसके कारण अब्रह्मचर्य सेवन की संभावना रहती है। अधिक मात्रा में | भोजन करने से ब्रह्मचर्य का ही नाश नहीं होता, अपितु शरीर की भी हानि होती है। शरीर में अजीर्ण आदि अनेक रोग |पैदा हो जाते हैं। इसलिए इसका त्याग करना चाहिए। आयुर्वेद - शास्त्र में कहा है कि मनुष्य को पेट में आधा हिस्सा व्यंजन | (सब्जी) सहित भोजन के लिए, दो हिस्से पानी के लिए और छट्ठा हिस्सा वायु संचार के लिए रखना चाहिए (पिण्डनि. | ६५० ) इस प्रकार पांचवीं भावना हुई। इस तरह नौ प्रकार की ब्रह्मचर्य - गुप्ति का समावेश करके ब्रह्मचर्य की पांचों भावनाएँ बतायी गयी है ।। ३१॥
अब पांचवें महाव्रत की ५ भावनाओं का वर्णन करते हैं
| ३२ | स्पर्शे रसे च गन्धे च रूपे शब्दे च हारिणि । पञ्चस्वतीन्द्रियार्थेषु, गाढं गार्ध्यस्य वर्जनम् ||३२||
। ३३ । एतेष्वेवामनोज्ञेषु, सर्वथा द्वेषवर्जनम् । आकिञ्चन्यव्रतस्यैवं, भावनाः पञ्च कीर्तिताः ||३३||(युग्मम्) अर्थ :- मनोहर स्पर्श, रस, गंध, रूप शब्द इन पांचों इंद्रियों के विषयों में अतिगाढ़ आसक्ति का त्याग करना और इन्हीं पांचों इंद्रियों के बुरे विषयों में सर्वथा द्वेष का त्याग करना, ये आकिंचन्य ( अपरिग्रह या निर्ममत्व ) महाव्रत की पांच भावनाएं कही हैं ।। ३२-३३ ।।
व्याख्या :- स्पर्श आदि जो विषय मनोज्ञ हों, उन पर राग का त्याग करना चाहिए। इंद्रियों के प्रतिकूल जो | स्पर्शादि - विषय अप्रिय हों, उन पर द्वेष (घृणा) नहीं करे। आसक्तिमान व्यक्ति मनोहर विषयों पर राग और अनिष्ट विषयों पर द्वेष करते हैं। जो मध्यस्थ होता है, उसकी विषयों पर मूर्च्छा नहीं होने से कहीं पर भी इनसे प्रीति - आसक्ति नहीं होती और न अप्रीति (घृणा) होती है। राग के साथ द्वेष अवश्यम्भावी होता है। इसलिए बाद में ग्रहण किया गया है। किंचन कहते हैं - बाह्य और अभ्यंतर परिग्रह को, वह जिसके नहीं है; वह अकिंचन कहलाता है। आशय यह है कि अकिंचनता का ही दूसरा नाम अपरिग्रह है। वह पंचम महाव्रत रूप है। उसकी यह पांच भावनाएं समझना चाहिए
।।३२-३३।।
मूलगुण रूप चारित्र का वर्णन करने के बाद अब उत्तरगुण रूप चारित्र का वर्णन करते हैं
।३४। अथवा पञ्चसमिति - गुप्तित्रय - पवित्रितम् । चारित्रं सम्यक्चारित्रमित्याहुर्मुनिपुङ्गवाः ।।३४।।
अर्थ :- अथवा पांच समिति और तीन गुप्ति से पवित्र बने हुए मुनि पुंगवों के चारित्र को श्री तीर्थंकर देवों ने सम्यक् चारित्र कहा है ।। ३४ ।।
व्याख्या :- समिति का अर्थ है - सम्यक् प्रवृत्ति । अर्थात् पांच प्रकार की चेष्टाओं की तांत्रिक संज्ञा को अथवा | अर्हत्प्रवचनानुसार प्रशस्त चेष्टा को समिति कहते हैं। गुति अर्थात् आत्मा का संरक्षण । मुमुक्षु के मन, वचन, काया के योग (मन, वचन, काया के व्यापार) निग्रह को गुप्ति कहा है। इन पांच समिति और तीन गुप्ति से पवित्र साधुओं की
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