________________
महाव्रतों की भावनाओं का स्वरूप
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ३० से ३१ परेशानी होती है, साधु को भी जरूरत से ज्यादा जगह दाता से लेने पर उसके प्रतिलेखन-प्रमार्जन (पूंजन) आदि में | असावधानी होने की संभावना रहती है। दाता के मन में उद्विग्नता आने की संभावना रहती है और स्वयं को भी अदत्तपरिभोग के कारण कर्मबंध होता है, यही तीसरी भावना है। (४) जो एक समान धर्म का पालन करते हों या एक ही धर्मपथ के पथिक हों, वे साधर्मिक कहलाते हैं। साधर्मिक साधु-वेष से भी सम होते हैं, आचार विचार से भी सम होते हैं, ऐसे साधर्मी साधुओं ने पहले का जो क्षेत्र (स्थान) स्वीकार किया हो; बाद में आने वाले साधुओं को उनसे आज्ञा लेकर रहना चाहिए; नहीं तो उनकी चोरी मानी जाती है। यह चौथी भावना हुई। (५) शास्त्रोक्त विधि-अनुसार दोष रहित अचित्त, एषणीय और कल्पनीय आहार-पानी मिले उसे ही भिक्षा रूप में लाकर आलोचना करके गुरु महाराज को निवेदन करे। तत्पश्चात् गुरु की आज्ञा लेकर मंडली में अथवा अकेला आहार करे। उपलक्षण से इसके साथ यह ध्यान रखना चाहिए कि 'जो कुछ औधिक औपग्रहिक भेद वाले उपकरण अर्थात् धर्म-साधन रूप उपकरण हों, उन सभी का उपयोग गुरु की आज्ञा प्राप्त करने के बाद ही करना चाहिए। ऐसा करने से तीसरे महाव्रत का उल्लंघन नहीं होता। इस तरह तीसरे महाव्रत की ये पांच भावनाएँ समझनी चाहिए ।।२९।। __ अब चौथे महाव्रत की पांच भावनाओं का वर्णन करते हैं।३०। स्त्री-षण्ढ-पशुमद्वेश्माऽऽसनकुड्यान्तरोज्झनात् । सरागस्त्रीकथात्यागात् प्राग्रतस्मृतिवर्जनात् ॥३०॥ ।३१। स्त्रीरम्याङ्ग्रेक्षण-स्वाङ्ग-संस्कारपरिवर्जनात् । प्रणीतात्यशन-त्यागाद्, ब्रह्मचर्यं तु भावयेत् ॥३१॥(युग्मम्) अर्थ :- ब्रह्मचारी साधक, स्त्री, नपुंसक और पशुओं के रहने के स्थान (तथा उनके बैठे हुए आसन या आसन
वाले स्थान) का त्याग करे। इसी प्रकार जहां कामोत्तेजक या रति सहवास के शब्द सुनायी दें, बीच में केवल एक पर्दा, टट्टी या दीवार हो, ऐसे स्थान में भी न रहे। और राग पैदा करने वाली स्त्री-कथाओं का त्याग करे। पूर्व-अवस्था की रतिक्रीड़ा के स्मरण का त्याग करे। स्त्रियों के मनोहर अंगोपांगों को नहीं देखे। अपने शरीर पर शोभा वर्द्धक श्रृंगार-प्रसाधन या सजावट का त्याग करे और अतिस्वादिष्ट तथा प्रमाण से अधिक आहार का त्याग करे। इस प्रकार इन दस ब्रह्मचर्यगुप्सियों के अंतर्गत पंचभावनाओं द्वारा
ब्रह्मचर्य-व्रत की सुरक्षा करनी चाहिए ॥३०-३१।। . व्याख्या :- ब्रह्मचारी पुरुष को नारीजाति से, नारी को पुरुषजाति से सावधान रहना अनिवार्य है। संसार में स्त्रीजाति के दो प्रकार हैं-देव-स्त्री और मनष्य-स्त्री। ये दोनों सजीव हैं। किन्त चित्र के रूप में या पतली के रूप में (काष्ठ या मिट्टी आदि की) स्त्री निर्जीव है। इन दोनों प्रकार की स्त्रियों का संसर्ग कामविकारोत्पादक होता है; तथैव | नपुंसक (तीसरे वेद के उदय वाला) महामोहकर्म से युक्त और स्त्री और पुरुष के सेवन में आसक्त होता है। तिर्यंचयोनि वाले गाय, भैंस, घोड़ी, गधी, बकरी, भेड़ आदि में भी मैथुनसंज्ञा की संभावना रहती है। इसलिए पहली भावना बताई | गयी है कि स्त्री, नपुंसक और पशु जहां रात-दिन रहते हों, ऐसे स्थान का त्याग करना चाहिए। ये जहां आसन लगाकर बैठे हों अथवा उन्होंने जिस बिछौने (संथारे) या तख्त आदि आसनों का उपयोग किया हो, उस पर भी अंतर्मुहूर्त तक बैठना वर्जित है। अथवा जिस स्थान में रहने पर दीवार, टट्टी या पर्दे के पीछे रहने वाले दंपति के मोहोत्पादक शब्द सुने जायें, ऐसे स्थान का ब्रह्मचर्य-भंग की संभावना से त्याग करना चाहिए। यह प्रथम भावना हुई। राग-पूर्वक स्त्रियों के साथ बातें करने अथवा स्त्री-विकथा करने का त्याग करना। स्त्रियों से संबंधित देश, जाति, कूल, वेशभूषा, भाषा, चाल-ढाल, हावभाव, मन, परीक्षा, हास्य, लीला, कटाक्ष, प्रणय-कलह या शृंगार-रसवाली बातें भी वायुवेग के |समान चित्त-समुद्र में राग और मोह का तूफान पैदा कर देती है। अतः इनसे दूर रहना आवश्यक है। यह दूसरी भावना हुई। जिसने साधुदीक्षा या ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया हो, उसने पूर्व-अवस्था में स्त्री के साथ जो रति-क्रीड़ा, आलिंगन आदि किया हो, उसका स्मरण नहीं करना चाहिए। कदाचित् स्मरण हो जाय तो फौरन उसका त्याग करना चाहिए। क्योंकि पूर्व की रति-क्रीड़ा के स्मरण-रूप-इंधन से कामाग्नि अधिक प्रदीप्त होती है। अतः इसका त्याग करना चाहिए। | यह तीसरी भावना हुई। स्त्रियों के मनोहर, मन में कामाभिलाषा पैदा करने वाले, आकर्षक मुख, नेत्र, स्तन, जंघा आदि | अंगोपांगों को अपूर्व विस्मयरस की दृष्टि से या विकार की दृष्टि से ताक-ताककर या आंखें फाड़कर नहीं देखना चाहिए।
52