________________
महाव्रतों की भावनाओं का स्वरूप
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक २७ से २९ ।२७। हास्य-लोभ-भय-क्रोध-प्रत्याख्यानैर्निरन्तरम् । आलोच्य भाषणेनापि, भावयेत सूनृतव्रतम् ।।२७।। अर्थ :- हास्य. लोभ. भय और क्रोध के त्याग (नियंत्रण) पूर्वक एवं विचार करके बोले; इस प्रकार (पांच
भावनाओं द्वारा) सत्यव्रत को सुदृढ़ करे ।।२७।। व्याख्या :- मनुष्य एक दूसरे की हंसी मजाक करते समय झूठ बोल देता है, लोभाधीन बनकर धन की आकांक्षा से झूठ बोल देता है, प्राणों की रक्षा या प्रतिष्ठा जाने आदि के भय से और क्रोध से मनचलित होने के कारण झूठ बोलता है। इन हास्य आदि चारों के त्याग के नियम रूप चार भावनाएँ हैं और अज्ञानता पूर्वक अंधाधुंध अंटसंट न बोलकर सम्यग्ज्ञान से युक्त अच्छी तरह विचारकर बोला जाय, यह पांचवी भावना है। मोह मृषावाद का कारण है, यह जग में प्रसिद्ध ही है। कहा भी है-रागाद्वा, द्वेषाद्वा, मोहाद्वा, वाक्यमुच्यते तद्ध्यनृतम्।' 'राग से, द्वेष से अथवा मोह से जो वाक्य बोला जाता है. वह असत्य कहलाता है ।।२७।।। अब तीसरे महाव्रत की ५ भावनाओं का वर्णन करते हैं
।२८। आलोच्यावग्रहयाञ्चाऽभीक्ष्णावग्रहयाचनम् । एतावन्मात्रमेवैतदित्यवग्रहधारणम् ॥२८।। ।२९। समानधार्मिकेभ्यश्च, तथाऽवग्रहयाचनम् । अनुज्ञापितपानान्नाशनमस्तेयभावनाः ।।२९।।(युग्मम्) 'अर्थ :- मन से विचार करके अवग्रह (रहने की जगह) की याचना करना; मालिक से बार-बार अवग्रह की
याचना करना; जितनी जगह की आवश्यकता हो, उतनी ही जगह को रखना; स्वधर्मी साधु से भी अवग्रह की याचना करके रहना या ठहरना, गुरु की आज्ञा से आहार-पानी का उपयोग करना, ये पांच
अस्तेय (अचौर्य) महाव्रत की भावनाएँ हैं ।।२८-२९।। व्याख्या :- साधु-साध्वियों को किसी भी स्थान पर रहने या ठहरने से पूर्व उस स्थान व स्थान के मालिक आदि के विषय में मन में भलीभांति चिंतन करके उससे रहने या ठहरने की याचना करनी चाहिए। इंद्र, चक्रवर्ती, राजा, | गृहपति और साधर्मिक साधु; इस तरह पांच प्रकार के व्यक्तियों के अवग्रह कहे हैं। आगे-आगे का अवग्रह बाध्य है | और पीछे-पीछे के अवग्रह बाधक है। इसमें देवेन्द्र का अवग्रह इस तरह समझना-जैसे सौधर्माधिपति देवेन्द्र, दक्षिणलोकार्ध का और ईशानाधिपति शकेन्द्र उत्तर-लोकार्ध का स्वामी माना जाता है। इसलिए जिस स्थान का कोई भी मालिक लोकव्यवहार में न हो, उस अवग्रह का मालिक पूर्वोक्त न्याय से देवेन्द्र माना जाता है। जिस चक्रवर्ती या सामान्य राजा के अधिकार में जितना राज्य हो, उतना (भरत आदि) क्षेत्र उसका अवग्रह माना जाता है। जिस घर का जो मालिक हो, वह उस घर का गृहपति माना जाता है। उसका अवग्रह गृहपति-अवग्रह कहलाता है। इसे शास्त्रीय परिभाषा में शय्यातर (वस्ती या मकान का मालिक भी) कहते हैं। अगर किसी स्थान या मकान में पहले से साधु ठहरे हुए हों और गृहस्थों ने उन्हें स्थान दिया हुआ है, तो वहाँ साधर्मिक-अवग्रह होता है, उन्हीं से याचना करके नये आने वाले साधु को ठहरना चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक अवग्रह को जानकर विधियुक्त क्रम से रहने की याचना करनी चाहिए।
(१) मालिक से याचना नहीं करने से परस्पर विरोध पैदा होने पर अकारण ही लड़ाई-झगडा या किसी प्रकार का क्लेश, झंझट आदि इहलोक-संबंधी दोष पैदा होते हैं और बिना दिये हुए स्थान का सेवन करने से पापकर्म का बंध होता है। परलोक में भी दुःख पाता है। इस प्रकार पहली भावना हुई (२) मालिक के द्वारा एकबार अनुज्ञात (आज्ञा दिये) स्थान (अवग्रह की बार-बार याचना करते रहना चाहिए; संभव है, पहले प्राप्त हुए स्थान में और रोगी, ग्लान, वद्ध. अशक्त साधु या साध्वी के मलमत्र आदि परठ देने में गृहपति ऐतराज मानता हो; इसलिए उसके सामने पूरा स्पष्टीकरण करके हाथ-पैर या पात्र धोने अथवा मल-मूत्र परठने आदि के लिए जगह की याचना करके अनुमति प्राप्त करनी चाहिए, ताकि अवग्रह-दाता के चित्त में क्लेश न हो, प्रसन्नता रहे। इस प्रकार की यह दूसरी भावना पूर्ण हुई। (३) तीसरी भावना यह है कि साधु को यह विचार करना चाहिए कि मुझे अपने ध्यान, स्वाध्याय, आहार आदि करने के लिए इतनी सीमा (हद) तक की जगह की जरूरत है। इससे अधिक जरूरत नहीं है, तो उतने ही अवग्रह की याचना व व्यवस्था करूं। इस तरह अवग्रह धारण करने से और उसके अंदर ही कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, आहार आदि क्रिया कर लेने से दाता को परेशानी नहीं होती। नहीं तो, कई बार दाता के अपने उपयोग के लिए जगह थोड़ी रहने से उसे
51