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अष्ट प्रवचन माता का स्वरूप
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ३५ से ३६ चेष्टा को सम्यक् चारित्र कहा है। समिति सम्यक् प्रवृत्ति-स्वरूप है और गुप्ति का लक्षण है-प्रवृत्ति से निवृत्ति। इन दोनों में इतनी ही विशेषता है ।।३४।।
अब समिति और गुप्ति के नाम कहते हैं।३५। ईर्या-भाषैषणादान-निक्षेपोत्सर्ग-सञिकाः । पञ्चाहुः समितितिस्रो, गुप्तीस्त्रियोगनिग्रहात् ॥३५।। अर्थ :- ई-समिति, भाषा-समिति, एषणा-समिति, आदान-निक्षेप-समिति और उच्चारप्रस्रवण
खेलजल्लसिंघाणपरिष्ठापनिका (उत्सर्ग) समिति; ये पांच समितियां हैं और तीन योगों का निग्रह करने
वाली गुप्ति है; जो मनो गुप्सि, वचन गुप्ति तथा काय गुप्ति के भेद से तीन प्रकार की कही है। व्याख्या :- उपर्युक्त पांच समितियाँ सम्यक् प्रवृत्तियाँ है। मन, वचन और काया के व्यापार का प्रवर्तन का (आगम) विधि से निरोध करने अर्थात् उन्मार्ग में जाते हुए मन, वचन और काया के योग की प्रवृत्ति रोकने को श्री तीर्थकर भगवान् ने गुप्ति कही है।
अब ईर्यासमिति का लक्षण कहते हैं।३६। लोकातिवाहिते मार्गे, चुम्बिते भास्वदंशुभिः । जन्तुरक्षार्थमालोक्य, गतिरीर्या मता सताम् ॥३६।। अर्थ :- जिस मार्ग पर लोगों का आना-जाना होता हो तथा जिस मार्ग पर सूर्य की किरणें पड़ती हों, जीवों की
रक्षा के लिए ऐसे मार्ग पर नीचे दृष्टि रखकर साधु पुरुषों द्वारा की जाने वाली गति को ईर्यासमिति माना
है ॥३६।। व्याख्या :- त्रस और स्थावर जीवमात्र को अभयदान देने के लिए दीक्षित साधु का आवश्यक कार्य के लिए गमनागमन करते समय जीवों की रक्षा के लिए तथा अपने शरीर की रक्षा के लिए पैरों के अग्रभाग से लेकर धूसर-प्रमाण क्षेत्र तक दृष्टि रखकर चलना ईर्यासमिति कहलाता है। ईर्या का अर्थ है-चर्या गति और समिति का अर्थ है-सम्यक् प्रवृत्ति करना। अर्थात् गमन-क्रिया में सम्यक् प्रवृत्ति करने को ईर्या-समिति कहते हैं। तात्पर्य यह है कि मुनि युगमात्र
हाथ) भूमि को देखते हुए बीज, हरियाली, जीव, जल, पृथ्वीकाय आदि जीवों को बचाते हुए जमीन पर चलते हैं। मार्ग में खडडे. स्तंभ. बिना पानी का किच्चड़ हो, नदी आदि को पार करने के लिए पत्थर, काष्ठ रखा हो तो दूसरा मार्ग हो तो उस मार्ग से न जाय। (दश. वै. ५/३-४) गति मार्ग पर की जाती है, अतः उस मार्ग की ही विशेषता बताते हैं 'लोगों के आने-जाने से बहुत चालू और अविरत जिस मार्ग पर सूर्य की किरणे स्पर्श करती हों| |अर्थात् मार्ग भलीभांति दिखाई देता हो, उसी पर गमन करने का विधान है। प्रथम विशेषणोक्त मार्ग से आने-जाने वाले | | मुनि से षट्कायिक जीव की विराधना नहीं होती। खराब मार्ग में भी नहीं जाना चाहिए, इसी हेतु से कहते हैं कि लोकप्रचलित उक्त मार्ग पर भी रात को चलने से उड़कर आये हुए संपातिम जीवों की विराधना होती है। अंधकार में जीव- | जंतुओं के पैर के नीचे आने से उनकी तथा किसी जहरीले जंतु द्वारा अपनी भी हानि होने की संभावना है। अतः ऐसे | मार्ग से चलने का निषेध करने हेतु दूसरे विशेषण में 'सूर्य की किरण में चलने को कहा है, इस प्रकार के उपयोग वाले मुनि को चलते-चलते यदि जीव की विराधना हो भी जाय तो भी जीव-वध का पाप नहीं लगता। कहा है कि
१] उच्चालियम्मि पाए इरियासमियस्स संकमट्ठाए । वावज्जेज्ज कुलिंगी मरेज्ज या तं जोगमासज्ज ॥ ॥ न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहमोवि देसिओ समये । अणवज्जो उयओगेण सव्वभावेण सो जम्हा ॥
ईर्यासमिति पूर्वक यतना से चलता हुआ मुनि चलते समय पैर ऊँचा करे, उसमें कदाचित् कोई द्वीन्द्रियादि जीव मर जाय तो उसके लिए शास्त्र में कहा है कि उस निमित्त से उसे जरा-सा भी कर्मबंधन नहीं होता, क्योंकि समभाव से सर्वथा उपयोग पूर्वक की हुई यह निरवद्य प्रवृत्ति है तथा अयतना एवं अवद्य पूर्वक प्रवृत्ति करने से जीव मरे या न मरे तो भी उसे हिंसा का पाप अवश्य लगता है और जो सम्यक् प्रकार से उपयोग पूर्वक एवं यतना पूर्वक गमनागमन करता है, उस साधक से कदाचित् हिंसा हो भी जाय तो भी उस हिंसा से कर्म-बंधन नहीं होता। (ओघ नि. ७४८-७४९) ।।३६ ।।
अब दूसरी भाषासमिति के संबंध में कहते हैं
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