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महाव्रतों का स्वरूप
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक २३ से २४ अर्थ :- वस्तु के स्वामी की आज्ञा के बिना किसी भी वस्तु को ग्रहण नहीं करना, अस्तेय (अचौर्य) व्रत कहा
गया है। धन मनुष्यों का बाह्य प्राण है; उसके हरण करने से उसके प्राणों का हनन हो गया,
समझो।।२२।। व्याख्या :- धन या किसी भी चीज को स्वामि के दिये बिना या उसकी आज्ञा के बिना ग्रहण न करना तीसरा अदत्तादान महाव्रत कहा है। वह त्यागियों के लिए १. स्वामी-अदत्त, २. जीव-अदत्त, ३. तीर्थकर-अदत्त और, ४. गुरु-अदत्त; इस तरह चार प्रकार का बताया है। घास, तृण, पत्थर, लकड़ी आदि पदार्थ उसके स्वामी ने नहीं दिये हो अथवा लेने की आज्ञा न दी हो; उसे ग्रहण करना स्वामीअदत्त है। स्वामी की आज्ञा तो हो, परंतु स्वयं जीव की आज्ञा न हो, जैसे कि दीक्षा के परिणाम-रहित जीव (मनुष्य) को उसके माता-पिता, गुरु को दे दें; परंतु उस व्यक्ति (जीव) की स्वयं की इच्छा के बिना दीक्षा देना जीव-अदत्त है। तीर्थंकर भगवान् के द्वारा निषिद्ध आधाकर्मादि दोषयुक्त आहार ग्रहण करना; तीर्थंकर-अदत्त है। किसी वस्तु के लेने की स्वामी ने आज्ञा दे दी; वह वस्तु आधाकर्म आदि दोष से भी रहित है, किन्तु गुरु की आज्ञा उस वस्तु को ग्रहण करने की नहीं है, तो गुरु की आज्ञा के बिना उस वस्तु को लेना गरु-अदत्त (चोरी) है। अहिंसा से आगे के सभी व्रत प्रथम अहिंसाव्रत की रक्षा के हेत हैं। यहां शंका होती है कि अदत्तादान में हिंसा कैसे संभव है? इसके उत्तर में कहते हैं कि धन को ११वाँ बाह्य-प्राण लोक-व्यवहार में कहा है। धन पर ममत्वभाव अधिक होने से वह प्राण समान है। उसके चुराये जाने अथवा चले जाने से जीव का हृदय फट जाता है, बड़ा आघात पहुंचता है और मृत्यु तक भी हो जाती है। इसलिए शास्त्रकारों ने धन को बाह्य प्राण कहा है। इस दृष्टि से धनहरण करने वाला वास्तव में उसके मालिक के प्राण-हरण करता है ।।२२।।
अब चौथे महाव्रत के विषय में कहते हैं।२३। दिव्यौदारिककामानां, कृतानुमतिकारितैः । मनो-वाक्-कायतस्त्यागो, ब्रह्माष्टादशधा मतम् ।।२३।। अर्थ :- दिव्य (देव-संबंधी) और औदारिक काम (मदनकाम-मैथुन) का मन, वचन और शरीर से करने, कराने |
. और अनुमोदन का त्याग करना ब्रह्मचर्य है, जो अठारह प्रकार का है ।।२३।। व्याख्या :- देवताओं के वैक्रिय-शरीर तथा मनुष्य जाति और तिर्यंच जाति के औदारिक शरीर से संबंधित कामभोग (मैथुन) का मन, वचन और काया से सेवन करने, कराने और अनुमोदन का त्याग करना ब्रह्मचर्य है, जो अठारह प्रकार के मैथुन-त्याग-रूप होने से १८ प्रकार का कहा है। देवता-संबंधी रतिसुख, मन, वचन और काया से तथा कृत कारित और अनुमोदन के भेद से त्रिविध-त्रिविध (३४३=९) विरति रूप होने से ९ प्रकार का होता है। तथा औदारिक संबंधी काम के भी उसी तरह त्रिविध-त्रिविध त्याग होने से नौ भेद होते हैं, कुल मिला कर १८ प्रकार का ब्रह्मचर्य महाव्रत होता है। करना; कराना और अनुमोदना के मन, वचन और काया के भेद से ९ भेद जैसे बीच के व्रत में बताये हैं; वैसे ही सबसे पहले के और बाद के महाव्रतों के भी समझ लेने चाहिए ।।२३।। __ अब पांचवें महाव्रत के संबंध में कहते हैं।२४। सर्वभावेषु मूर्छायास्त्यागः स्यादपरिग्रहः । यदसत्स्वपि जायेत, मूर्च्छया चित्तविप्लवः ॥२४॥ अर्थ :- संसार के सारे (सजीव-निर्जीव) पदार्थों पर मूर्छा का त्याग करना अपरिग्रह महाव्रत है। पास में वस्तु
नहीं होने पर भी आसक्ति से मन में विचारों की उथल-पुथल होती रहती है ।।२४।। व्याख्या :- मन, वचन और काया से तथा कृत, कारित और अनुमोदित-रूप से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव| रूप सर्व भावों में मूर्छा या आसक्ति का त्याग करना अपरिग्रह महाव्रत कहलाता है। केवल पदार्थ का त्याग कर देना ही त्याग नहीं कहलाता। उस पदार्थ के प्रति मूर्छा, मोह, ईच्छा, राग, आसक्ति या स्नेह का त्याग करना ही वास्तव में अपरिग्रह महाव्रत कहलाता है। यहां शंका होती है कि 'परिग्रह' का त्याग करने से अपरिग्रह व्रत हो ही गया, फिर इसका लक्षण मूर्छा-त्याग-रूप क्यों बताया? इसके उत्तर में कहते हैं कि अविद्यमान पदार्थों में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव से मर्ज़ा होने से मन में अशांति रहती है और मन में अनेक प्रकार के विकल्प-जाल अथवा विकार उठते हैं। इस प्रकार के अस्थिर मन वाला साधक प्रशम सुख का अनुभव नहीं कर सकता। धन न होने पर भी धन की तृष्णा राजगृह के द्रमुक नामक भिखारी के समान चित्त में मलिनता पैदा करती है और वह दुर्गति में गिराने का कारणभूत
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