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दर्शन चारित्र रत्न का स्वरूप
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १७ से १८
| अंधकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समान, जगत् के तत्त्वों को प्रकाशित करने के लिए अपूर्व नेत्रसमान तथा इंद्रियों रूपी हिरनियों को वश करने हेतु जाल के समान यह सम्यग्ज्ञान ही है ।।१६।।
अब दूसरे दर्शनरत्न के संबंध में कहते हैं
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।१७। रुचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु, सम्यक् श्रद्धानमुच्यते । जायते तन्निसर्गेण गुरोरधिगमेन वा ||१७||
अर्थ :- श्री जिनेश्वर भगवान् के द्वारा कथित तत्त्वों में रुचि होना सम्यक् श्रद्धा कहलाती है। वह सम्यक् श्रद्धा निसर्ग से ( स्वभावतः ) तथा गुरु महाराज के उपदेश से (अधिगम ) होती है ||१७||
व्याख्या : - श्री जिनेश्वर - कथित जीवादि तत्त्वों में रुचि होना सम्यक् श्रद्धा (दर्शन) है। सम्यक् श्रद्धा के बिना | फलसिद्धि नहीं होती। सब्जी, अनाज आदि का स्वरूप ज्ञात होने पर भी रुचि के बिना मनुष्य उसकी तृप्ति अथवा स्वाद | का फल प्राप्त नहीं कर सकता । श्रुतज्ञान वाले अंगारमर्दक आदि, अभव्य जीव अथवा दुर्भव्य जीव को जिनोक्त तत्त्व | पर रुचि नहीं होने से वे तप-अनुष्ठानादि का वास्तविक फल प्राप्त नहीं कर सके। वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार का होता | है । गुरु महाराज के उपदेश के बिना जो स्वाभाविक होता है; उसे प्रथम निसर्ग- सम्यक्त्व कहते हैं; और जो गुरु महाराज | के उपदेश से अथवा प्रतिमा, स्तंभ, स्त्री आदि किसी भी वस्तु को देखकर होता है, उसे अधिगम - सम्यक्त्व कहते हैं। अनादि-अनंत संसार के भंवरजाल में परिभ्रमण करते हुए जीवों के साथ लगे हुए ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय | वेदनीय और अंतरायकर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की है, गोत्र और नामकर्म की बीस कोटाकोटि | तथा मोहनीयकर्म की सत्तर कोटाकोटि सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। इस स्थिति में जिस प्रकार पर्वत पर से बहती नदी में लुढ़कते टकराते हुए कितने ही बेडौल पत्थर अपने आप गोलाकार बन जाते हैं; उसी प्रकार अनायास ही | स्वयमेव प्रत्येक कर्म की स्थिति उसी प्रकार के परिणामों के योग से कम हो जाती है और जब सिर्फ एक कोटाकोटि | सागरोपम स्थिति बाकी रह जाती है; तब प्रत्येक संसारी जीव यथाप्रवृत्तिकरण के योग से ग्रंथि-प्रदेश के नजदीक आ | है | अत्यंत कठिनाई से भेदन हो सकने योग्य राग-द्वेष के परिणामों को ग्रंथी कहते हैं। जो सदा रायण की मूलगांठ के | समान अत्यंत कठिनता से छिन्न हो सकती है। ग्रंथि स्थान तक पहुंचा हुआ वह जीव भी रागादि से प्रेरित होकर फिर कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बांधता है और उसके फलस्वरूप चार गतियों में भ्रमण करता रहता है। उसमें कई भविष्य में | कल्याण प्राप्त करने वाले भव्यजीव होते हैं, वे अपने महावीर्य को प्रकट करते हुए कठिनता से उल्लंघन (भेद) की जा | सकने वाली ग्रंथि का एकदम उल्लंघन भेदन करके उसी प्रकार आगे पहुंच जाते हैं, जिस प्रकार कोई पथिक लंबे पथ | को पार करके झटपट ईष्ट स्थान पर पहुँच जाता है; इसे अपूर्वकरण कहते हैं। इसके बाद अनिवृत्तिकरण करने पर छिन्न | करने योग्य मिथ्यात्व के दलों को छिन्न कर उसी समय अंतर्मुहूर्त की स्थिति वाला औपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। यह सम्यग्दर्शन निसर्ग-सम्यक्त्व कहलाता है। आम जीवों को गुरुमहाराज के उपदेश से अथवा किसी प्रकार के | आलंबन से सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। जिसे अधिगम - सम्यक्त्व कहा जाता है। यह सम्यग्दर्शन यम और प्रशम के औषध- समान, ज्ञान, चारित्र एवं श्रुतादि का हेतु है। जो सम्यक्त्व ज्ञान और चारित्र से रहित होता है, तो भी वह | प्रशंसनीय है; लेकिन मिथ्यात्व रूपी विष से दूषित ज्ञान और चारित्र प्रशंसनीय नहीं है। ज्ञान और चारित्र से रहित होने पर भी सम्राट् श्रेणिक ने सम्यक्त्व के प्रभाव से अनुपम सुखनिधान के समान प्राप्त तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन किया। | संसारसमुद्र में डूबने वाले के लिए यह नौका के समान है। दुःख रूपी वन को जलाने के लिए दावानल के समान है। | अतः सम्यदर्शन रूपी रत्न को ग्रहण ( प्राप्त) करना चाहिए ||१७||
अब तीसरे चारित्ररत्न का वर्णन करते हैं
।१८। सर्व-सावद्य-योगानां, त्यागश्चारित्रमिष्यते । कीर्तितं तदहिंसादि - व्रतभेदेन पञ्चधा ॥१८॥
अर्थ :- समस्त पापयुक्त (सदोष) योगों का त्याग करना चारित्र कहलाता है। यह चारित्र अहिंसा आदि व्रत के भेद से पांच प्रकार का कहा है ।। १८ ।
| व्याख्या :- समस्त सावद्य सपाप व्यापार-मन-वचन-काया के योगों का ज्ञान पूर्वक त्याग करना चारित्र कहलाता है।
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