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अजीव एवं आश्रव तत्त्व का वर्णन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १६
| समय वाले हैं। दोनों एक साथ आठ वर्ष कम पूर्व क्रोड वर्ष तक होते हैं। (८) जिसमें कर्मों की अपूर्व-स्थिति का घात | आदि करे, उसे अपूर्वकरण नामक आठवाँ गुणस्थानक कहते हैं। इस गुणस्थान से दो श्रेणियां प्रारंभ होती है-उपशम | श्रेणी और क्षपक श्रेणी । उदय में आये हुए स्थूल कषाय के परिणाम को अंदर ही अंदर निवर्तन ( उपशांत) करने वाले | साधक का गुणस्थान निवृत्तिबादर कहलाता है । (९) जिसमें प्रयत्नपूर्वक अंदर ही अंदर परिणामों की निवृत्ति ( उपशम) न हो, वह अनिवृत्तिबादर नाम का नौवां गुणस्थानक कहलाता है। इसमें दोनों श्रेणियाँ रहती हैं। (१०) लोभ नामक कषाय जहां सूक्ष्मरूप में रहता हो, वहाँ दशवाँ सूक्ष्म-संपराय-गुणस्थान कहलाता है। इसमें भी दोनों श्रेणियाँ होती है। (११) जहां मोह उपशांतदशा में रहता हो, सर्वथा क्षीण न हुआ हो, वहां उपशांत मोह नामक ग्याहरवा गुणस्थान होता | है | ( १२ ) जहां मोह सर्वथा क्षीण (निर्मूल) हो जाय, वहां क्षीणमोह नामक बारहवां गुणस्थान होता है । (१३) आत्मगुणों का घात करने वाले ४ घाती (ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय) कर्मों का क्षय हो जाय; वहां तेरहवां | सयोगी केवली गुणस्थान कहलाता है। (१४) मन-वचन-काया के योग का जहां क्षय जाय, और जहां शेष वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य कर्म जो अघाती कहलाते है उनका भी क्षय जाय वह अयोगी - केवली नामक चौदहवाँ गुणस्थानक होता है। इस तरह जीवतत्त्व का स्वरूप संक्षेप में समझना ।'
अजीव-तत्त्व :
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल इन पदार्थों को अजीव कहा है। सर्वज्ञों ने इन पांचों के साथ जीव को मिलाकर षड्द्रव्य की प्ररूपणा की है। इनमें से काल को छोड़कर शेष सभी पदार्थ | प्रदेशों के रूप में इकट्ठे होते हैं; इसलिए ये द्रव्य-स्वरूप हैं और जीव के सिवाय शेष द्रव्य चेतना-रहित और अकर्ता| रूप माने गये हैं। काल अस्तिकाय रहित है। पुद्गलास्तिकाय को छोड़कर शेष द्रव्य अमूर्तस्वरूप अथवा अरूपी माने जाते हैं। ये सभी द्रव्य उत्पन्न होते हैं; नष्ट होते हैं और स्थिर रहते हैं । पुद्गल का लक्षण है - जो स्पर्श, रस, गंध और | वर्ण वाला हो। पुद्गल के दो प्रकार हैं- अणुरूप और स्कन्धरूप। इसमें अणु बहुत ही सूक्ष्म होता है और अनंत अणुओं के समूह को स्कंध कहते हैं। और गंध, शब्द, सूक्ष्मता, स्थूलता आदि आकृति वाले तथा अंधकार, आतप, उद्योत, खंड, छाया, कर्म - वर्गणा, औदारिकादि शरीर, मन, भाषा वर्गणा, श्वासोच्छ्वास, सुख-दुःख देने वाला व जीवनमृत्यु में सहायता देने वाला पुद्गल स्कंध कहलाता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, ये तीनों द्रव्य अलग-अलग हैं। तथा ये तीनों द्रव्य सदा अमूर्त, निष्क्रिय और स्थिर होते हैं। एक जीवद्रव्य के असंख्यात प्रदेश | होते हैं। जितने लोकाकाश के प्रदेश है, उतने ही धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश होते हैं। इन दोनों में प्रदेश अधिक या कम नहीं होते। जलचर जीवों को जैसे जल में गति करने में पानी सहायता करता है, वैसे ही जीव या अजीव को चारों तरफ गमनागमन की प्रवृत्ति करने में धर्मास्तिकाय सहायता करता है। जैसे पथिक के लिए स्थिर होने में छाया सहायक बनती है, वैसे ही जीव और पुद्गल जो स्वयं स्थिर बनते हैं, उनको जो सहायता देकर स्थिर करता है वह | अधर्मास्तिकाय है। अपने स्थान पर रहते हुए स्वयं में प्रतिष्ठित होकर जो जीवों और पुद्गलों को अवकाश (स्थान) देता है, वह आकाशास्तिकाय कहलाता है। वह अनंत- प्रदेश - स्वरूप है, लोक और अलोक दोनों में व्याप्त है। लोकाकाश के प्रदेश में रहे हुए द्रव्यों से भिन्न द्रव्य काल है; जो पदार्थों को परिवर्तन करने में समर्थ है, वही काल कहलाता है। जैसे नये को पुराना करना, युवक से वृद्ध बनाना; यह सब काल का ही काम है। ज्योतिषशास्त्र में समय, पल, विपल, घड़ी, मुहूर्त, प्रहर, दिन, रात, महिना, वर्ष, युग इत्यादि जो समय सूचक शब्द है, इन सबको काल का ही परिणाम | कहा है। उस काल के तत्त्वज्ञों ने उसे व्यवहारिक काल की संज्ञा दी है। नवीन, जीर्ण आदि के रूप में पुकारे जाने वाले | पदार्थ जगत् में परिवर्तन होते रहते हैं; यह सब काल का ही सामर्थ्य है। काल के ही कारण वर्तमान पदार्थ भूतकाल की संज्ञा को और भावी पदार्थ वर्तमान भाव को प्राप्त करता है। इस तरह अजीवतत्त्व पूर्ण हुआ।
आश्रवतत्त्व :
मन, वचन और काया के योग से जीव रूपी जलाशय में कर्म रूपी जल का आना आश्रव कहलाता है। शुभकर्म
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