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मोक्ष का मूल कारण-योग-ज्ञान-योग जीव तत्त्व
योगशाख प्रथम प्रकाश श्लोक १५ से १६ अब फिर आधे श्लोक से योग की स्तुति करके शेष आधे श्लोक से योग का स्वरूप बताते हैं।१५। चतुर्वर्गेऽग्रणीर्मोक्षो योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञान-श्रद्धान-चारित्र-रूपं रत्नत्रयं च सः ।।१५।। अर्थ :- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-रूप चार पुरुषार्थों में मोक्ष अग्रणी है। और उस मोक्ष की प्राप्ति का कारण
योग है। तथा वह योग ज्ञान, श्रद्धा तथा चारित्र रूपी रत्नत्रय रूप है ॥१५॥ व्याख्या :- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों वर्गों में मोक्ष प्रधान है। अर्थ के उपार्जन करने में, उसकी रक्षा करने में तथा उसके नाश होने पर दुःख होता है। इसलिए दुःख के संसर्ग से दूषित होने के कारण चार वर्गों में अर्थ अग्रसर नहीं है। काम तो इंद्रिय-जनित सुख है, जो क्षणिक और तुच्छ है। वह अर्थ से कुछ अच्छा है, लेकिन अंत "परिणाम) में महान् दुःखदायी है। कामसेवन से मनुष्य की तृप्ति तो होती नहीं, बल्कि काम-सेवन प्रायः दुर्गति का साधन होने से वह भी प्रधान नहीं है। धर्म तो इस लोक और परलोक के सुख का कारण रूप होने से अर्थ और काम दोनों से अधिक श्रेष्ठ है। फिर भी सोने की बेड़ी के समान पुण्य कर्म बंधन का कारण है। पुण्य से सुख मिलता है, परंतु आत्मिक सुख नहीं मिलता। पौद्गलिक सुख तो संयोगिक-वियोगिक है। कुछ ही अर्से तक रहकर नष्ट हो जाता है। इसलिए धर्म भी मुख्य नहीं है। आत्मिक सुख की परिपूर्णता मोक्ष में है। मोक्ष तो पुण्य पाप के क्षय होने पर होता है; इसलिए अंश मात्र क्लेश कर नहीं। मोक्ष विष-मिश्रित भोजन के समान भोग के समय मनोहर और परिणाम में दुःखदायक नहीं है और इस लोक या परलोक के फल की इच्छा के दोष से दूषित भी नहीं है। इस कारण परमानंदमय मोक्ष इन चारों वर्गों में सर्वश्रेष्ठ है। उसी मोक्ष को प्राप्त कराने का कारण योग है। योग से मोक्ष मिलता है। उस योग का क्या स्वरूप है? इसके उत्तर में आचार्य भगवान् कहते हैं-वह मोक्ष ज्ञान, श्रद्धा और चारित्र-रूपी रत्नत्रय-स्वरूप है ।।१५।।
अब सर्वप्रथम मोक्ष के हेतुभूत ज्ञानयोग का स्वरूप बतलाते हैंज्ञान-योग :।१६। यथावस्थिततत्त्वानां सऽक्षेपाद् विस्तरेण वा । योऽवबोधस्तमत्राहुः सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः ॥१६॥ अर्थ :- जो तत्त्व जैसी (यथा) स्थिति में है, उन तत्त्वों के स्वरूप को संक्षेप से या विस्तार से अवबोध या जानने
. को मनीषियों (विचारकों) ने सम्यग्ज्ञान कहा है। व्याख्या :- जिनका स्वरूप नय, निक्षेप और प्रमाण आदि से सिद्ध है, वे तत्त्व कहलाते हैं। वे तत्त्व जीव, अजीव, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष-रूप है। उनका वास्तविक बोध (ज्ञान) किसी को संक्षेप से और किसी को कर्म क्षयोपक्षम के कारण विस्तार से होता है। वह इस प्रकार-जीव, अजीव, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष; ये सात तत्त्व पंडित-पुरुषों ने बताये हैं। जीवतत्य :
उनमें से जीव के दो भेद हैं-मुक्त और संसारी। सभी जीव अनादि-अनंत ज्ञान-दर्शन-स्वरूप होते हैं। कर्म से सर्वथा मुक्त जीवों का स्वरूप एक सरीखा होता है। वे सदा के लिए जन्म-मरणादि क्लेशों और दुःखों से रहित हो जाते हैं; तथा अनंत दर्शन-ज्ञान-शक्ति और आनंदमय-स्वरूप बन जाते है।
संसारी जीवों के त्रस और स्थावर ये दो भेद हैं। इन दोनों के भी दो भेद है-पर्याप्त और अपर्याप्त। पर्याप्तियां ६ प्रकार की होती हैं-१. आहारपर्याप्ति, २. शरीरपर्याप्ति, ३. इंद्रियपर्याप्ति, ४. श्वासोच्छ्वास-पर्याप्सि, ५. भाषापर्याप्ति और ६. मनःपर्याप्ति। एकेन्द्रिय जीव के चार, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय (विकलेन्द्रिय) जीवों के पांच तथा पंचेन्द्रिय जीवों के छह पर्याप्तियां होती है। एकेन्द्रिय स्थार-जीव के ५ भेद है-पथ्वीकाय. अप (जल) का
तेऊ (अग्नि) काय, वायुकाय और वनस्पति काय। इनमें से प्रथम चारों के सूक्ष्म और बादर दो-दो भेद होते हैं। और वनस्पति 1.धर्मशब्द यहां 'पुण्य' के अर्थ में लिया गया है। आत्मा की शुद्धपरिणति या संवर-निर्जरा के अर्थ में नहीं।
-संपादक 2. अधिकांश आचार्यों ने 'पुण्य' और 'पाप' ये दो तत्त्व और मिला कर नौ तत्त्व माने हैं। यहां इन दो तत्त्वों का समावेश आश्रव तत्त्व में माना
-संपादक
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