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चौदह गुणस्थान
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १६ के प्रत्येक और साधारण दो भेद होते हैं। प्रत्येक वनस्पति बादर होती है और साधारण वनस्पति के सूक्ष्म और बादर ये दो भेद होते हैं। दो, तीन, चार और पांच इंद्रिय वाले त्रसजीव कहलाते हैं; वे चार प्रकार के हैं। इनमें पंचेंद्रिय जीवों के दो भेद होते हैं-१. संज्ञी और २. असंज्ञी। जो शिक्षा उपदेश, आलाप आदि समझते हैं या जानते हैं, वे संज्ञी कहलाते हैं और जिसके मन-प्राण न हो, वे असंज्ञी पंचेंद्रिय कहलाते हैं। स्पर्श, जीभ, नासिका, आंख और कान; ये पांच इंद्रियां है। स्पर्श, स्वाद, रस, गंध, रूप और शब्द ये क्रमशः इनके पांच विषय है। कृमि, शंख, कौड़ी, सीप, जौंक आदि अनेक प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव होते हैं। चींटी. खटमल. ज. मंकोडा आदि त्रीन्द्रिय जीव होते हैं। टिडी. पतंगा, मक्खी, मच्छर, भौरे, बिच्छु आदि चतुरिन्द्रिय जीव होते हैं। शेष तिर्यच-योनि में हए जलचर, स्थलचर और खेचर, नारकी, मनुष्य और देव ये सभी पंचेन्द्रिय जीव होते हैं।
मन, वचन और काया-रूप तीन बल, पांच इन्द्रियाँ, आयुष्य और श्वासोच्छ्वास ये १० प्राण कहलाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों के शरीर (काया) आयुष्य, श्वासोच्छ्वास और इंद्रिय ये ४ प्राण होते हैं। द्वीन्द्रिय के ६, त्रीन्द्रिय के ७, चतुरिन्द्रिय के ८ असंज्ञी पंचेन्द्रिय के ९ और संज्ञी पंचेन्द्रिय के १० प्राण होते हैं। पंचेन्द्रियों में देव और नारक उपपात जन्म वाले तथा मनुष्यों और तिर्यंचों में प्रायः गर्भ से जन्म लेने वाले तथा तिर्यंचों में जरायुज, पोतज और अंडज (अंडे से होने वाले) ये सब संज्ञी पंचेन्द्रिय होते हैं और शेष संमूर्छिम रूप से उत्पन्न होने वाले असंज्ञी पंचेन्द्रिय कहलाते है। संमूर्छिम जीव और नरक के पापी जीव नपुंसक होते हैं। वेद तीन हैं-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद। देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद; ये दो वेद होते हैं। मनुष्यों और तिर्यचों के तीन वेद होते हैं। सभी जीवों के व्यवहार-राशि और अव्यवहार-राशि, ये दो भेद होते हैं। सूक्ष्म निगोद के जीव अव्यवहार-राशिगत माने जाते हैं, और शेष समस्त जीव व्यवहारराशिगत कहलाते हैं। सचित्त, अचित्त, मिश्र, संवृत, विवृत और मिश्र, शीत, उष्ण और शीतोष्ण, इस प्रकार | जीव के नौ प्रकार की योनियाँ है। अर्थात् उत्पत्ति होने के स्थान हैं। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय और वायुकाय सात जीवों की प्रत्येक की सात-सात लाख योनियाँ है। प्रत्येक वनस्पतिकाय की दस लाख और साधारण वनस्पतिकाय अनंतकाय की चौदह लाख, दो, तीन और चार इंद्रिय वाले विकलेन्द्रिय जीवों की प्रत्येक की दो-दो लाख, नारक, तिथंच और देवता की प्रत्येक की चार-चार लाख और मनुष्य की १४ लाख योनियां है। कुल मिलाकर चौरासी लाख जीवयोनियां सर्वज्ञों ने कही हैं। एकेन्द्रिय जीव १. सूक्ष्म और २. बादर, पंचेन्द्रिय-३. जीव संज्ञी और ४. असंज्ञी, ५. दो ६. तीन और ७. चार इंद्रियों वाले जीव ये सातों पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते हैं। इस तरह जिनेश्वरदेवों ने जीवों के चौदह-स्थान बताये हैं।
जीवों के इन १४ स्थानों (संक्षिस भेदों) पर निम्नोक्त १४ मार्गणाद्वारों की भी प्ररूपणा सर्वज्ञों ने की है। १४ मार्गणाएं इस प्रकार है-१. गति, २. इंद्रिय, ३. शरीर, ४. योग, ५. वेद, ६. ज्ञान, ७. कषाय, ८. संयम, ९. आहार, १०. दर्शन, ११. लेश्या, १२. भव्यत्व, १३. सम्यक्त्व तथा १४. संज्ञी। अब जीव के चौदह गुण स्थानक कहते हैं। जीय के चौदह गुणस्थान :
१. मिथ्यात्व, २. सास्वादन, ३. सम्यक्त्व-मिथ्यात्व, (मिश्र), ४. अविरति सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरति (श्रावक), ६. प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. निवृत्तिबादर, ९. अनिवृत्तिबादर, १०. सूक्ष्मसंपराय, ११. उपशांतमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगी केवली और, १४. अयोगी केवली; ये चौदह गुणस्थानक है।
(१) मिथ्यादर्शन का उदय हो तब तक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानक कहलाता है, (२) मिथ्यात्व का उदय न हो, किन्तु अनंतानुबंधी कषाय की चौकड़ी (क्रोध, मान, माया, और लोभ) का उदय हो तो उत्कृष्ट छह आवलिका तक रहने वाला गुणस्थान सास्वादन-गुणस्थानक कहलाता है। (३) सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों का योग होने से तीसरा (मिश्र) गुणस्थानक कहलाता है; जो अंतर्मुहूर्त रहता है। (४) अप्रत्याख्यानावरणीय चौकड़ी के उदय होने पर अविरत सम्यग्दृष्टि होता है। (५) प्रत्याख्यानावरणीय कषाय का उदय होने पर देशविरति (श्रावक) गुणस्थान होता है। (६) संयम प्राप्त होने के बाद यदि प्रमाद-सेवन करे तो उसका गुणस्थान प्रमत्त-संयत कहलाता है। (७) जो संयमी प्रमादसेवन नहीं करता, उसका गुणस्थान अप्रमत्त-संयत कहलाता है। छठा और सातवाँ ये दोनों गुणस्थान क्रमशः अंतर्मुहूर्त
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