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चारित्र रत्न के महाव्रतों का स्वरूप
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १९ से २२ | ज्ञान और श्रद्धा के बिना चारित्र सम्यक् चारित्र नहीं कहलाता। यहां देशविरतिचारित्र से इसकी पृथक्ता बताने के लिए 'सर्व' शब्द का ग्रहण किया गया है। चारित्र के दो भेद किये गये हैं- मूलगुण और उत्तरगुण । मूलगुण रूप चारित्र से पंच महाव्रतों का ग्रहण करना चाहिए ।।१८।।
अब चारित्र के पंच महाभूत रूप मूलगुणों का वर्णन करते हैं
।१९। अहिंसा-सूनृतास्तेय - ब्रह्मचर्याऽपरिग्रहाः । पञ्चभि: पञ्चभिर्युक्ता, भावनाभिर्विमुक्तये ॥१९॥ अर्थ :अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच महाव्रत हैं और इन पांचों महाव्रतो में से प्रत्येक महाव्रत पांच-पांच भावनाओं से युक्त होता है। ये भावनाएँ मुक्ति के लिए ( सहायक ) होती है । । १९ ।। व्याख्या : - अहिंसा आदि पांच महाव्रतों की प्रत्येक की पांच-पांच भावनाएँ है । इसीलिए कहा गया है कि यदि | भावना की सतत जागृति रहे तो साधक उससे मुक्ति प्राप्त कर सकता है ।।१९।।
अब अहिंसा रूप प्रथम महाव्रत का स्वरूप कहते हैं
तदहिंसाव्रतं मतम् ॥२०॥
।२०। न यत् प्रमादयोगेन, जीवित - व्यपरोपणम् । त्रसानां स्थावराणां च अर्थ :- प्रमाद के योग से त्रस या स्थावर जीवों के प्राणों का हनन न करना, प्रथम अहिंसा महाव्रत माना
गया है ||२०||
व्याख्या :- प्रमाद का अर्थ है - अज्ञान, संशय, विपर्यय, राग, द्वेष, स्मृतिभ्रंश, मन, वचन और काया के योगों के प्रतिकूल आचरण करना और धर्म का अनादर करना । इस प्रकार प्रमाद आठ प्रकार का कहा गया है। उक्त प्रमाद के योग से त्रस (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय) अथवा स्थावर (पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पतिकाय के) जीवों के प्राणों का नाश करना हिंसा है और हिंसा के निषेध या जीवों के रक्षण को ही प्रथम अहिंसा - व्रत कहा गया है ।। २० ।।
अब दूसरे महाव्रत का स्वरूप कहते हैं
| २१ | प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं, सूनृतव्रतमुच्यते । तत् तथ्यमपि नो तथ्यम्, अप्रियं चाहितं च यत् ॥२१॥ दूसरे को प्रिय, हितकारी और यथार्थ वचन बोलना सत्यव्रत कहलाता है। परंतु जो वचन अप्रिय या - अहितकर है, वह तथ्यवचन होने पर भी सत्यवचन नहीं कहलाता ||२१||
अर्थ :
व्याख्या ः- अमृषास्वरूप सत्यवचन सूनृतव्रत कहलाता है। सुनने मात्र से जो आनंद दे, वह प्रिय वचन है और भविष्य में जो हितकारी हो वह पथ्य वचन है। जो वस्तु जैसी है, वैसी ही कहना यही तथ्य है, यही यथार्थ वचन | कहलाता है। यहां सत्य व्रत का अधिकार होने से तथ्य उसका एक विशेषण है। यहां शंका होती है कि सत्य के साथ प्रिय और पथ्य इन विशेषणों के कहने का क्या प्रयोजन है? इसके उत्तर में कहते हैं कि, 'कई बार व्यवहार से तथ्य होने पर भी चोर को चोर या कोढ़ी को कोढ़ी आदि कहना अप्रिय (आघातकारी) वचन होने से वह सत्य नहीं कहलाता। | इसी प्रकार कोई बात तथ्ययुक्त होने पर भी अहितकारी होगी तो वह भी सत्य नहीं कहलायेगी। शिकारी जंगल में किसी | सत्यव्रती से पूछते हैं कि 'हिरण किस और गया है? क्या तुमने देखा है?' अगर सत्यव्रती उस समय कहता है कि 'हाँ, | मैंने हिरण को इस ओर जाते देखा है।' तो इस प्रकार के कथन में प्राणिहिंसा की संभावना रही हुई है। अतः ऐसा वचन हिंसाकारक होने से यथार्थ वचन होते हुए भी प्राणिहितकारी (पथ्य) न होने के कारण सत्य नहीं कहा जा सकता।
निष्कर्ष यह है कि दूसरों को खेद पहुंचाने वाला और परिणाम में अनर्थकर सत्य वचन भी सत्य नहीं है; अपितु प्रिय और हितकर तथ्य वचन ही वास्तविक सत्य है 1 ।। २१ ।।
अब तीसरे महाव्रत का वर्णन करते हैं
।२२। अनादानमदत्तस्यास्तेयव्रतमुदीरितम् । बाह्याः प्राणा नृणामर्थो, हरता तं हता हि ते ||२२||
1. इसलिए महाभारत में सत्य की परिभाषा की गयी है- 'यद् भूतहितमत्यन्तमेतत्सत्य मतं मम जिसमें प्राणियों का एकांत हित हो उसे ही मैंने सत्य माना है।
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