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संवर से मोक्ष तत्त्व का वर्णन, पांच ज्ञान का स्वरूप
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १६ के कारण शुभ आश्रव अथवा पुण्य और अशुभकर्म के कारण अशुभ आश्रव अर्थात् पाप कहलाता है। इस प्रकार जीव रूपी तालाब में कर्म रूपी पानी का आना आश्रव है। संवरतत्य और निर्जरातत्य :
आश्रवों को रोकना संवर कहलाता है। संसार के जन्म-मरण के हेतुभूत कर्मों को आत्मा से अंशतः अलग करना निर्जरा है। इस तरह दोनों तत्त्वों का स्वरूप एक साथ बतला दिया है। आश्रव, संवर और निर्जरा तत्त्व का स्वरूप यहां विस्तृत रूप से नहीं बता रहे हैं; क्योंकि आगे चलकर भावना के प्रकरण में इन्हें विस्तार से बताया जायेगा। पाठक वहीं पर विस्तृत रूप से जान लें। यहां पर पुनरुक्ति होने के भय से तीन तत्त्वों को संक्षेप में ही बता दिया है। बंधतत्य :
कषायों के कारण जीव, कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है; जीव को इस प्रकार परतंत्रता में डालने का कारणभूत तत्त्व बंध कहलाता है। जैसे बेड़ी से जकड़ा हुआ कैदी पराधीन हो जाता है, वैसे ही कर्म रूपी बेड़ी में जकड़ा हुआ स्वतंत्र आत्मा भी पराधीन हो जाता है। बंध के प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध और प्रदेशबंध। ये चार भेद हैं; प्रकृति का अर्थ है-कर्म का स्वभाव। इसके (प्रकृतिबंध के) ज्ञानावरणीय आदि निम्नोक्त आठ भेद होते हैं-१. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयुष्य, ६. नाम, ७. गोत्र और ८. अंतराय। कर्म की ये मूल आठ प्रकृतियाँ कहलाती है। अधिक या कम कर्मों की स्थिति अर्थात् कर्म भोगने की अवधि या काल-नियम को कर्मस्थिति (स्थितिबंध) कहते हैं। अनुभाग बंध विपाकरस को और प्रदेश बंध, कर्मों के दलों को कहते हैं। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग इन पांच कारणों से जीव कर्म-बंधन करता है। इस तरह बंधतत्त्व का स्वरूप संक्षेप में बताया गया है। मोक्षतत्य :
संपूर्ण कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाना या कर्मबंध के कारणों का सर्वथा अभाव हो जाना मोक्ष कहलाता है। मोक्ष से पहले चार घातीकर्मों के क्षय होने से केवलज्ञान होता है। उसके बाद शेष रहे कारणों का क्षय होने से जीव का मोक्ष होता है। तीनों लोकों में देवों, असुरों और चक्रवर्तियों को जो सुख है, वह मोक्ष-सुख-संपत्ति के अनंतवें भाग में भी नहीं है। अपनी आत्मा में स्थिरता रूप या आत्म-स्वरूप में रमणता रूप जो सुख है, वही अतीन्द्रिय है, नित्य है और उसका कभी अंत नहीं होता। इस प्रकार का असीम सुख होने से मोक्ष को चारों वर्गों में अग्रसर कहा है। इस तरह मोक्षतत्त्व का कथन किया गया। पांच ज्ञानों का स्वरूप :
__ सम्यग्ज्ञान के मुख्य पांच प्रकार हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। ये पांचों ज्ञान उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है। इनके पांच भेदों के प्रत्येक के उत्तर भेद भी हैं। अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, बहु, बहुविध आदि भेदयुक्त, इंद्रिय और मन से होने वाले ज्ञान को मतिज्ञान कहते हैं। श्रुतज्ञान - अंग, उपांग, प्रकीर्ण आदि को विस्तार युक्त स्याद्वाद से युक्त ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रुतज्ञान के अनेक भेद हैं। इंद्रियों और मन की सहायता के बिना आत्मा से अमुक अवधि तक रूपी द्रव्यों का ज्ञान होता रहे वह अवधिज्ञान है। अवधिज्ञान के दो प्रकार हैभवप्रत्ययिक और २. गुण-प्रत्ययिक (क्षयोपशम जन्य)। देवता और नारकों को जन्म से ही अवधिज्ञान होता है; किंतु
और तिर्यचों को यह ज्ञान क्षयोपशम से होता है। वह छह प्रकार का होता है-अनुगामि, अननुगामि, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाति और अप्रतिपाति। मनःपर्यवज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति ये दो भेद हैं। ऋजुमति साधारणतः
परंत विपलमति मनःपर्यवज्ञान एक बार प्राप्त होने पर कदापि नहीं जाता। जगत के सर्वकालों सर्वद्रव्यों, सर्वपर्यायों का आत्मा से सीधा होने वाला विश्वलोचन के समान अनंत, अतीन्द्रिय, अपूर्वज्ञान, केवलज्ञान कहलाता है। इस तरह पांच ज्ञान से सभी तत्त्व जाने जा सकते हैं। ज्ञान से साधक, मोक्ष के कारण रूप रत्नत्रय के प्रथम भेद का ज्ञाता बन सकता है। संसार-रूपी वृक्ष के समूल-उन्मूलन के लिए मदोन्मत्त हाथी के समान, अज्ञान
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