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योग की प्रशंसा
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १४ | इधर चिलातीपत्र भी सषमा पर गाढ अनुराग के कारण बार-बार उसका मुख देखता हुआ मार्ग परवाह न करके दक्षिणदिशा की ओर चला जा रहा था। मार्ग में उसे सब प्रकार के संताप को दूर करने वाले छायादार वृक्ष के समान कायोत्सर्ग (ध्यान) में स्थिर एक साधु के दर्शन हुए। चिलातीपुत्र के मन को अपना अकार्य बार-बार कचोट रहा था। अतः मुनि की शांत मुख मुद्रा देखकर वह बहुत ही प्रभावित हुआ। ध्यान पूर्ण होते ही उसने मुनि से कहा-'मुझे झटपट संक्षेप में धर्म कहो; नहीं तो इसी तलवार से इस सुषमा की तरह केले के पेड़ के समान तुम्हारा भी सिर उड़ा दूंगा। मुनि ने ज्ञानबल से जाना कि-'इस आत्मा में बोधि-बीज बोने से धर्म रूपी अंकुर फूटने की अवश्य संभावना है।' अतः उन्होंने कहा-'उपशम, विवेक और संवर की अच्छी तरह आराधना करनी चाहिए।' यों कहकर वे पक्षी के समान आकाश में उड़ गये। चिलातीपुत्र उन तीनों पदों को सुनते ही भलीभांति ग्रहण करके बार-बार उनको स्मरण करने लगा। धीरे-धीरे उन तीनों पदों का भावार्थ उसे इस प्रकार समझ में आया-'समझदार पुरुषों को क्रोधादि कषायों का उपशम करना चाहिए। परंतु अफसोस है, सर्पो से जैसे चंदनवृक्ष घिरा रहता है, वैसे मैं भी कषाय रूपी सो से घिरा हुआ हूँ। अतः इस कषाय रूपी महारोग की यथार्थ चिकित्सा के लिए मुझे इन कषायों से दूर ही रहना है। कषायों के उपशम के लिए मेरा पहला संकल्प है कि आज से मैं क्षमा. नम्रता, सरलता और संतोष रूपी महौषधियों का सेवन करूँगा। मेरा दूसरा संकल्प यह होगा कि मैं आज से धन, सोना आदि पदार्थों के त्याग रूपी विवेक का; जो ज्ञान रूपी महावृक्ष का बेजोड़ बीज है, स्वीकार करूंगा तथा पापमय संपत्ति की ध्वजा के समान इस सुषमा का मस्तक और हाथ में पकड़ी हुई तलवार एवं अनर्थ रूप समस्त अर्थ का भी त्याग करता हूँ। मेरा तीसरा संकल्प यह है कि आज से में इंद्रियों और मन के विषयों से निवृत्ति रूपी त्याग तथा संयम-लक्ष्मी के मुकुट-समान संवर अंगीकार करता हूँ।' इस प्रकार समस्त इंद्रियों को वश करके वस्तुतत्त्व का चिंतन-मनन करते-करते वह इतनी गहरायी में डूब गया कि उसका मन एकाग्र हो गया; वह समाधिस्थ और निश्चेष्ट हो गया। इधर चिलातीपुत्र के शरीर पर लिपटे हुए खून की दुर्गंध से वहाँ हजारों चींटियाँ आ गयी और वे कवच के समान शरीर के चारों ओर लिपट गयी, उन चींटियों ने | मिलकर चिलातीपुत्र के शरीर में सैंकड़ों छेद कर डाले। चींटियों का इतना असह्य उपसर्ग (कष्ट) शरीर पर आ पड़ने पर भी चिलातीपुत्र स्तंभ के समान निश्चल रहा। ढाई दिनों तक इस घोर कष्ट को समभाव पूर्वक सहन करते हुए उसने शरीर छोड़ा। वहां से मरकर वह देवलोक में गया।
दूसरे सूत्रों में भी चिलातीपत्र का आख्यान है। वहां बताया गया है कि तीन पदों का श्रवण करके धर्म को भलीभांति समझकर संयम को स्वीकार करने वाले, उपशम, विवेक और संवर पद के आराधक चिलातीपुत्र को मैं नमस्कार करता हूँ। खून की गंध से चींटियों ने जिनके पैरों से चढ़कर मस्तक तक पहुंच कर सारे शरीर को कुरेद-कुरेद | कर नोच खाया, फिर भी जो समाधिस्थ रहे, ऐसे दुष्कर तपस्वी को वंदन करता हूँ। चींटियों ने जिसके शरीर को चलनी-सा छिद्रयुक्त बना दिया और जगह-जगह से काटा; फिर भी जो समभाव की साधना के पथ पर स्थिर रहे ऐसे धीर चिलातीपुत्र ने तो सिर्फ ढाई दिन में ही योग के प्रभाव से अप्सराओं से रमणीय बने हुए देवभव को प्राप्त किया। वास्तव में देखा जाय तो चिलातीपुत्र अपने चांडाल-सम व्यवहार से धिक्कार का भागी और नरक का अधिकारी था, लेकिन योग का आलंबन लेने से ही वह देवलोक के सुख का अधिकारी बन गया। इसी तरह समग्र-सुख का मूल कारण योग ही है, जिसके प्रभाव से मनुष्य सर्वत्र विजय प्राप्त करता है ।।१३।।
पुनः योग की ही प्रशंसा में कहते हैं।१४। तस्याजननिरेवास्तु, नृपशोर्मोघजन्मनः । अविद्धकर्णो यो 'योग', इत्यक्षर-शलाकया ।।१४।। अर्थ :- जिस मनुष्य के कान 'योग' के ढाई अक्षर रूपी शलाका (सलाई) से नहीं बींधे है, ऐसे मनुष्य का जन्म
पशु की तरह निरर्थक है। ऐसे व्यक्ति का जन्म ही नहीं होना चाहिए था ।।१४।। चाहे लोहे की सलाई से कान बींधे हो. परंतु 'योग' के ढाई अक्षर रूपी शलाका से जिसके कान पवित्र नहीं - हुए अथवा 'योग' जिसके कान में नहीं पड़ा; वह मनुष्यों में मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है। उसका जन्म
पश के समान निष्फल और विडंबना-रूप है। इससे बेहतर तो यह था कि वह मनुष्य जन्म में ही नहीं आता ।।१४।।
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