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चिलातीपुत्र के जीवन में योग का चमत्कार
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १३ शांत न हुए। जिसके साथ उसका विवाह हुआ था, वह भी उस पर अत्यंत अनुरक्त थी। जैसे नीले रंग से रंगी हुई साड़ी का रंग नहीं छूटता, वैसे ही उसका यज्ञदेव पर से राग नहीं छूटा। उसने यज्ञदेव मुनि को वश करने के विचार से पारणे के भोजन में कोई ऐसा वशीकरण चूर्ण डाल दिया, जिसके प्रभाव से कृष्णपक्ष के चंद्रमा की तरह यज्ञदेवमनिका शरीर दिनोंदिन क्षीण होता गया। चंद्र जैसे अस्त होने पर सूर्यमंडल में प्रविष्ट हो जाता है, वैसे ही एक दिन देहावसान होने पर वह मुनि वहाँ से स्वर्ग में गया। सच है, कामिनी, रागी या वैरागी किसी को मारे बिना नहीं छोड़ती। मुनि (पति) की मत्य हो जाने से उसकी पत्नी ने संसार से विरक्त होकर मनष्य-रूपी वक्ष के फलस्वरूप संयम (साध्वीदीक्षा अंगीकार कर लिया। पति पर अपने द्वारा किये गये वशीकरण-प्रयोग के पाप की आलोचना किये बिना ही वह मरकर देवलोक में उत्पन्न हुई। सचमुच, 'तप-संयम निष्फल नहीं जाता।' उधर यज्ञदेव के जीव ने देवलोक से च्यवकर राजगह नगर में धन्य सार्थपति के यहाँ चिलाती नाम की दासी की कक्षी से पत्र रूप में जन्म लिया। चिलातीदासी का पुत्र होने से लोगों में वह चिलातीपुत्र के नाम से पुकारा जाने लगा। इसलिए उसका दूसरा नाम नहीं रखा गया। पुत्रजन्मोत्सव तो दासी के पुत्र का होता ही क्या! यज्ञदेव की पत्नी स्वर्ग से च्यवकर धन्य सार्थपति की पत्नी भद्रा की कुक्षि से पाँच पुत्रों के बाद सुषमा नाम की पुत्री के रूप में पैदा हुई। उस पुत्री की देखभाल करने के लिए सेठ ने चिलातीपुत्र को नियुक्त कर दिया। चिलातीपुत्र सयाना होते ही बड़ा उद्दण्ड हो गया। वह लोगों को सताने लगा। उसकी शिकायत राजा तक पहुंची। सेठ को राजभय लगा। क्योंकि उसे यह खतरा दिखाई देता था कि 'सेवक के अपराध से स्वामी ही दंड का भागी होता है। अतः सेठ ने समझदारी से सतत उपद्रवी उस दासीपुत्र (चिलातीपुत्र) को उसी तरह घर से चुपचाप निकाल दिया, जैसे सपेरा सांप को पिटारे से बाहर निकाल देता है। इससे चिलातीपुत्र के मन में भयंकर प्रतिक्रिया जागी। वह उद्दण्ड तो था ही। अपने उद्दण्डता को सार्थक करने के लिए बड़े-बड़े अपराधों की लता के समान सिंहगुफा नामक चोरपल्ली में पहुंचा। कहावत है- 'एक सरीखी आदत और प्रकृति वाले व्यक्तियों में जल्दी ही मित्रता हो जाती है।' इसी न्याय के अनुसार वहां के चोरों के साथ उसकी झटपट मित्रता हो गयी। इस कारण जैसे हवा के संपर्क से आग बढ़ती जाती है; वैसे ही उन चोरों के सहवास से उसके अपराध बढ़ते ही गये। कुछ दिनों के बाद सिंहगुफा का स्वामी चोर सेनापति मर गया। उसके रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए ही मानो इसे तैयार किया गया हो, इस दृष्टि से चिलातीपुत्र को चोरों का सेनापति बना दिया गया।
इधर रूप, लावण्य आदि गुणों से सुशोभित होकर सुषमा यौवन के सिंहद्वार पर पहुंच गयी थी। वह सुसज्जित होने पर ऐसी मालूम होती थी, मानो पृथ्वी की देवी हो। अनेक कलाओं में भी वह निपूण हो गयी थी। नये चोरसेनापति चिलातीपुत्र ने अपने सेवकों से कहा-'चलो, हम सब राजगृह चलें। वहाँ धन्य-सार्थपति बहुत ही धनाढ्य व्यक्ति है। उसके यहां पर छापा मारकर जितना धन लूटा जा सके उसे लूटकर आप सब लोग बांट लेना। और मैं उसकी सुषमा नामक कन्या को ले लूँगा।' इस प्रकार आपस में समझौता करके चिलातीपुत्र चोर साथियों के साथ उसी रात को धन्य सार्थपति के यहाँ पहुँचा। उसने वहां अवस्वापिनी-विद्या का प्रयोग करके घर के सभी लोगों को निद्राधीन कर दिया। अपने आने की घोषणा करके उसने चोरों से प्रचुरमात्रा में धन-ग्रहण करवाया और सुषमा को स्वयं ने पकड़ लिया। पांचों पुत्रों सहित धन्यसार्थपति का सारा परिवार जब सोया हुआ था। तब 'इसके लिए यह न्याययुक्त है,' यों कहता हुआ जी-जान से सुषमा को लिए हुए वह चल पड़ा। उसके साथी चोर चुराये हुए धन को लेकर चिलातीपुत्र के साथ नौ-दो-ग्यारह हो गये। सार्थपति धन्य जागा तो उसे सारी स्थिति समझते देर न लगी। उसे इस बात का बहुत ही रंज हुआ कि चिलातीपुत्र, जो उसके घर में रहने वाली दासी का ही पुत्र था, वह मेरी लड़की और संपत्ति दोनों को लेकर भाग गया। उसने फौरन ही कोतवाल आदि नगररक्षक पुरुषों को बुलाकर कहा कि 'चोरों द्वारा लूटे हुए धन
और सुषमा का पता लगाओ और उन्हें वापिस ले आओ! तत्पश्चात् कोतवाल तथा कुछ रक्षकपुरुषों को साथ लेकर धन्य |सार्थपति स्वयं अपने पुत्रों के साथ हथियारों से लैस होकर चोरों का पीछा करने के लिए मनोवेग की तरह फुर्ती से दौड़ा। जैसे धतूरा पीने वाले को नशा चढ़ जाने से जल, स्थल, लता, वृक्ष या रास्ते में पड़ने वाली प्रत्येक वस्तु में सर्वत्र पीले
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