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योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १३
चिलातीपुत्र का दृष्टांत
रंग के सोने का आभास होता है, वैसे ही धन्य सार्थपति को भी सर्वत्र सुषमा ही सुषमा नजर आती थी। उसीकी धुन में वह बेतहाशा दौड़ा चला जा रहा था। रास्ते में जहाँ-जहाँ उन्हें पैरों के या कोई चिह्न मिलते, वहां वे बोल उठते| 'देखो! यहां उन्होंने पानी पीया है; यहाँ भोजन किया है; यहाँ वे बैठे हैं; यहाँ से वे गुजरे हैं।' यों बात करते करते | लंबे-लंबे कदम रखते हुए चोरों के पैरों का पता लगाते हुए उनका पीछ करते हुए वे सब उनके पास पहुंच गये। चोरों को देखते ही राजपुरुषों ने कहा-' - 'पकड़ो-पकड़ो! मारो इन्हें! कहीं ये भाग न जायें!' यह आवाज सुनकर चोर गिरफ्तारी के भय से धनमाल सब वहीं छोड़कर जान बचाकर अलग-अलग दिशाओं में भागे । परंतु सिंह जैसे पकड़ी हुई हिरनी को नहीं छोड़ता, वैसे ही चिलातीपुत्र ने सुषमा को नहीं छोड़ा। कोतवाल वगैरह राज्याधिकारी रिश्वत के रूप में बहुत| सा धन मिल जाने पर वापिस लौट गये। सच है - 'स्वार्थ सिद्ध होने पर सभी की बुद्धि बिगड़ जाती है।' हाथी जैसे लता को उठा ले जाता है; वैसे ही चिलातीपुत्र सुषमा को अपने कंधे पर उठाये भागता हुआ एक महाभयंकर जंगल में जा पहुंचा। धन्यसार्थपति के लिए चोर के हाथ से पुत्री को छुड़ाना उतना ही कठिन कार्य था, जितना राहु के मुख से चंद्रकला को छुड़ाना। फिर भी धन्यसार्थपति साहस करके अपने पांचो पुत्रों सहित सिंह की तरह उसका पीछा करता रहा। इधर चिलातीपुत्र ने भी इस बुद्धि से सुषमा का सिर काट डाला कि कहीं धन्यसार्थपति मेरे पास आ गया तो मेरी सुषमा को वह अपने कब्जे में कर लेगा। अब वह एक हाथ में नंगी तलवार और एक हाथ में सुषमा का कटा मस्तक लिये बेतहाशा दौड़ा जा रहा था। उस समय वह ऐसा लग रहा था, मानो यमपुरी का क्षेत्रपाल हो । इधर धन्यसार्थपति सुषमा के अलग पड़े हुए धड़ के पास आकर रुदन करने लगा। मानो वह सुषमा को आंसुओं की अंजलि अर्पण कर | रहा हो । तत्पश्चात् उसने सोचा- 'अब यहाँ रुकना व्यर्थ है। बेटी सुषमा गयी। धन भी गया।' अतः वह सुषमा के कटे हुए धड़ को वहीं छोड़कर अपने पुत्रों के साथ भारी कदमों से वापिस चल पड़ा। शोक के कांटों से बींधा हुआ धन्यसार्थपति भयंकर जंगल में भटक रहा था । ग्रीष्मऋतु की दोपहरी का सूर्य तप रहा था । उसकी चिलचिलाती सख्त धूप उनके ललाट को तपा रही थी। कहीं छाया का नामोनिशान भी नहीं था। शोक, थकान, भूख, प्यास और मध्याह्न के ताप से पीड़ित धन्यसार्थपति और उसके पांचों पुत्र ऐसे लगते थे मानो वे पंचाग्नि तप कर रहे हों। उस बीहड़ में उन्हें रास्ते में कहीं पानी, खाने लायक फल या जीवन को देने वाली कोई भी औषधि नजर नहीं आयी; प्रत्युत फाड़ खाने के वाले हिंसक जंगली जानवर जरूर दिखाई दिये; मानो वे मौत का न्यौता लेकर आये हों। अपनी और पुत्रों की | ऐसी विषम अवस्था देखकर धन्यसार्थपति ने लंबे मार्ग में चलते-चलते विचार किया कि 'हाय मेरी सारी संपत्ति नष्ट हो गयी; प्राणाधिका पुत्री भी मर गयी और अब हम भी मृत्यु के किनारे पहुंचे हुये हैं। अहो ! धिक्कार है दैव के इस क्रूर विलास को ! पुरुषार्थ करने से या बौद्धिक वैभव से जहाँ मनुष्य अपने ईष्ट पदार्थ को नहीं साध सकता; वहाँ अटवी में दैव (भाग्य) ही एकमात्र सहारा है। वह बड़ा बलवान् है । मगर यह दैव दान से प्रसन्न नहीं होता, विनय से इसे वश में नहीं किया जा सकता, सेवा से इसे काबू में नहीं किया जा सकता। यह दैव- वशीकरण - साधना कितनी मुश्किल है ? | पंडित भी इसका मर्म नहीं समझ सकते । पराक्रमी भी इसकी विषम प्रक्रियाओं को रोक नहीं सकते। ऐसे दैव को जीतने वाला इसके जोड़ का और कौन होगा? और यह भी है कि यह दैव किसी समय मित्र के समान कृपा करता है, तो कभी शत्रु के समान बेधड़क नाश भी कर देता है। कभी पिता के समान सर्वथा रक्षा करता है, तो किसी समय दुष्टों के समान | पीड़ा देता है। कभी दैव उन्मार्ग पर चढ़े हुए को सन्मार्ग पर ले आता है, तो कभी अच्छे मार्ग से गलत मार्ग में जाने की प्रेरणा देता है। किसी समय दूरस्थ वस्तु को निकट ले आता है, तो कभी हाथ आयी हुई वस्तु भी छीन लेता है। | माया और इंद्रजाल के समान दैव की गति अतीव गहन और विचित्र होती है । दैव की अनुकूलता से विष अमृत बन जाता है और प्रतिकूलता से अमृत भी विष बन जाता है।' यों चिन्ताचक्र पर चढ़ा हुआ शोकमग्न धन्यसार्थपति जैसेतैसे अपने पुत्रों के साथ राजगृह पहुंचा। अपनी पुत्री सुषमा के शरीर की उत्तरक्रिया की। बाद में संसार से विरक्ति हो जाने से उसने श्री महावीर प्रभु के पास दीक्षा स्वीकार की और दुष्कर तप करके आयु पूर्णकर स्वर्ग में गया।
1. आवश्यक निर्युक्ति में पुत्री के मांस को खाकर क्षुधा मिटाने का कथन है।
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