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योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १३
चिलाती पुत्र
| मेरे कर्म कटते हैं । यह तो मेरे लिये आनंद का कारण है। ये लोग मुझे परेशान करके सुखी होते हैं; उन्हें भी आज सुखी होने दो, क्योंकि संसार में सुखप्राप्ति ही तो दुर्लभ है। जैसे चिकित्सा करने वाले वैद्य क्षार से रोग मिटाते हैं; वैसे ही | ये लोग मुझे कठोर वचन कहकर मेरे दुष्कर्म को क्षय करने का प्रत्यन करते हैं। इसलिए ये मेरे वास्तविक हितैषी मित्र हैं। अग्नि की आंच सोने पर चढ़े हुए मैल को दूर करके सोने को उज्ज्वल एवं चमकदार बना देती है, वैसे ही ये लोग भी मुझे मारपीटकर या आक्रोश आदि करके मेरी आत्मा को कर्ममुक्त बनाकर उज्ज्वल बनाते हैं। मुझ पर प्रहार करके | दुर्गति रूपी कारागार में पड़े हुए मुझ पापी को बाहर खींच रहे हैं; क्या में ऐसे उपकारी पर कोप करूं? ये तो अपना | पुण्य देकर भी मेरे पाप दूर कर रहे हैं। इससे अधिक अकारण महान् बंधु और कौन होंगे ? संसार से मुक्त कराने में | कारणभूत ऐसा वध या पीड़ा आदि मेरे लिये तो आनंददायी है। परंतु इन गांव वालों के लिए मुझे दी जाने वाली यातना | अनंत-संसार वृद्धि की कारण रूप होगी, इसका मुझे दुःख है। इस संसार में कितने ही लोग दूसरों के आनंद के लिए अपने धन और तन तक का भी त्याग कर देते हैं तो इनके सामने तो इन्हें आनंद देने वाला आक्रोश या वध आदि कुछ भी नहीं है । मेरा किन्हीं लोगों ने तिरस्कार ही तो किया मुझे पीटा तो नहीं। कइयों ने मुझे पीटा जरूर पर, मुझे | जीवन से रहित तो नहीं किया। कुछ लोग मुझे जीवन से मुक्त करने पर तुले हुए थे, परंतु उन्होंने मुझे अपने परमबंधु | धर्म से तो दूर नहीं किया । अतः कल्याण हो इनका; सद्बुद्धि मिले इन्हें । श्रेयार्थी साधक को क्रोध करने वाले, दुर्वचन कहने वाले, रस्सी से बांधने वाले, हथियार से परेशान करने वाले या मौत का कहर बरसाने वाले, इन सभी पर | मैत्रीभाव रखकर समभाव से सहन करना चाहिए; क्योंकि कल्याण मार्ग में अनेक विघ्न आते ही हैं।' इस प्रकार सुंदर | भावनाओं में डूबते-उतरते हुए मुनि अपने दुष्कृत कर्मों की निंदा करने लगे। जैसे अग्नि घास के सारे पूलों को जला | देती है, वैसे ही दृढ़ - प्रहारी मुनि ने अपनी समस्त कर्मराशि को पश्चात्ताप की आग में जला दिया और अतिदुर्लभ, निर्मल | केवलज्ञान प्राप्त करके अयोगिकेवली नामक गुणस्थानक तक पहुंच कर मोक्षपद भी प्राप्त किया।
जिस तरह दृढ़प्रहारी मुनि ने नरंक का मेहमान बनना छोड़कर योग के प्रभाव से अनंत शाश्वत सुख - रूप परमपद (मोक्ष) प्राप्त कर लिया; इसी तरह दूसरे को भी असंदिग्ध होकर इस योग में प्रयत्न करना चाहिए ।। १२ ।। अब हम दूसरे उदाहरण देकर योग के प्रति श्रद्धा में ही वृद्धि कराते हैं
|| १३ | तत्कालकृतदुष्कर्म
अर्थ
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कर्मठस्य दुरात्मनः । गोप्त्रे चिलातिपुत्रस्य, योगाय स्पृहयन्न कः ? || १३ ||
कुछ ही समय पहले दुष्कर्म करने में अतिसाहसी दुरात्मा चिलातीपुत्र की रक्षा करने वाले योग की स्पृहा कौन नहीं करेगा ? ।। १३ ।।
व्याख्या : - तत्काल स्त्रीहत्या रूपी महापाप करने में शूरवीर, दुरात्मा चिलातीपुत्र को दुर्गति से बचाने वाले योग की कौन स्पृहा (अभिलाषा) नहीं करेगा? अर्थात् ऐसे योग-साधन की सभी इच्छा करेंगे। नीचे हम चिलाती पुत्र की | कथा दे रहे हैं
चिलाती पुत्र की कथा :
क्षितिप्रतिष्ठित नगर में यज्ञदेव नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वह अपने आपको पंडित मानता था, किन्तु जैनधर्म की सदैव निंदा करता था। एक शिष्य ( मुनि) को यह बात सहन नहीं हुई। उसके गुरु के रोकने पर भी उसने उस ब्राह्मण को हराने की दृष्टि से वाद-विवाद के लिए ललकारा। दोनों में ऐसी शर्त तय हुई कि वादविवाद में जो हारेगा, | वह विजेता का शिष्य बन जायेगा। जैनवादी बुद्धिकौशल मुनि ने शास्त्रार्थ में अपने प्रतिवादी ब्राह्मण को निरुत्तर कर | दिया । यज्ञदेव को अपनी हार माननी पड़ी और विजेता जैनमुनि ने प्रतिज्ञानुसार यज्ञदेव - ब्राह्मण को जैनदीक्षा दे दी। | दीक्षा लेने के बाद शासनदेवी ने यज्ञदेव को समझाया कि अब आपने चारित्र (पंचमहाव्रत ) प्राप्त कर लिया है, अतः आप ज्ञानी और श्रद्धावान् बन गये हैं। अब चारित्र की विराधना मत करना । यज्ञदेवमुनि चारित्रपालन तो यथार्थ रूप से करता था; मगर पूर्वसंस्कारवश वस्त्र और शरीर पर जम जाने वाले मैल के प्रति घृणा करता था । सच है, 'पूर्व संस्कार छोड़ना अतिकठिन है।' इस महामुनि के संसर्ग से स्वजन भी वर्षाऋतु के मेघ के संपर्क से सूर्य की किरणों की तरह
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