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बाहुबली की दीक्षा और भरत द्वारा स्तुति
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १०
करते ही चक्र भरत के हाथ में आ गया। क्रोध से हुंकारते हुए भरत जमीन से बाहर निकले और प्रचंड चकाचौंध वाला | चक्र बाहुबलि पर फेंका। सेना हाहाकार कर उठी । किन्तु यह क्या! चक्र बाहुबलि की परिक्रमा करके वापस भरत के पास लौट आया। क्योंकि देवताओं से अधिष्ठित शस्त्र एक गोत्र वाले स्वजन का पराभव नहीं कर सकता। भाई भरत को अनीति करते देखकर क्रोध से आंखे लाल करते हुए बाहुबलि ने सोचा- 'चक्र सहित इसे क्यों न चूर-चूर कर दूं।' | इस विचार के साथ बाहुबलि ने अपनी मुट्ठी बांधकर मारने के लिए उठायी। 2
तत्क्षण बाहुबलि के दिमाग में एक विचार बिजली की तरह क्रौंध उठा - 'कषायों के वशीभूत होकर बड़े भाई को | मारने से कितना अनर्थ हो जायेगा? इससे तो अच्छा यह होगा कि जो मुष्टि मैंने भाई को मारने के लिए तानी है, उससे | कषायों को मारने के लिए पंचमौष्टिक लोच क्यों न कर लूं।' इस प्रकार चिंतन-मनन- अनुप्रेक्षण करते-करते बाहुबलि | को संसार से विरक्ति उत्पन्न हो गयी, और उन्होंने तत्काल ही उठाई हुई मुष्टि से सिर के बालों का लोच कर लिया। | वे क्षमाशील मुनि बन गये। अचानक यह परिवर्तन देखकर 'बहुत ही श्रेष्ठ किया, बहुत ही सुंदर किया', यों प्रशंसा करते हुए देवों ने हर्ष से जयध्वनि की और बाहुबलि पर पुष्पवृष्टि की।
मुनि बनकर बाहुबलि ने मन में विचार किया- 'भगवान् के पास जाकर मुझसे पहले मुनि बने हुए अपने रत्नाधिक | किंतु लघुवयस्क भाईयों को मैं बड़ा भाई होकर कैसे वंदना करूँ? अच्छा तो यही होगा कि जब मुझे केवलज्ञान हो जायेगा, तभी सीधा भगवान् की धर्मसभा में जाकर केवलज्ञानियों की पर्षदा में बैठ जाऊंगा। न किसी को वंदना करनी | पड़ेगी और न कुछ और। '
यों सोचकर अपने कृत त्याग के अभिमान में स्वसंतुष्ट होकर बाहुबलि मुनि वहीं कायोत्सर्ग प्रतिमा धारण कर | मौन सहित ध्यान में स्थिर खड़े हो गये । बाहुबलि की ऐसी स्थिति देखकर अपने अनुचित आचरण से भरत को पश्चात्ताप | हुआ। शर्म से वह मानो पृथ्वी में गड़ा जा रहा था। उसने शांतरस की मूर्ति मुनि बने हुए अपने बंधु को नमस्कार किया। भरत की आंखों से पश्चात्ताप के गर्म अश्रुबिन्दु टपक पड़े। मानो रहा-सहा क्रोध भी आंसुओं के रूप में बाहर निकल | रहा था। भरतनरेश जिस समय बाहुबलि के चरणों में झुक रहे थे, उस समय बाहुबलि के पैरों के नख रूपी दर्पण में | प्रतिबिम्ब पड़ने से भरत के मन में उठे हुए सेवा, भक्ति, पश्चात्ताप आदि अनेक भावों के विविध रूप दिखाई दे रहे थे । भरतनरेश बाहुबलि के सामने अपने अपराध रूप रोग की औषधि के समान आत्मनिंदा और बाहुबलि मुनि की गुणस्तुति करने लगा - 'मुनिवर, धन्य है आपको! आपने मुझ पर अनुकंपा करके तिनके की तरह राज्यत्याग कर दिया। 'मैं वास्तव में अधम, पापी, असंतोषी और मिथ्या - अहंकारी हूँ; जिससे मैंने आपको दुःखित किया। जो अपनी शक्ति को नहीं | पहिचानते, अन्यायमार्ग में प्रवृत्त होते हैं और लोभ के वशीभूत हो जाते हैं, उन सब में मैं अगुआ हूँ। राज्य वास्तव में संसारवृक्ष को बढ़ाने वाला बीज है। इस बात को जो नहीं समझते, वे अधन्य है। राज्य को इस तरह का जानता हुआ भी मैं उसे नहीं छोड़ सका, इस कारण मैं अधम से भी अधम हूँ। सच्चा पुत्र वही कहलाता है, जो पिताजी के मार्ग पर चले। मैं भी आपकी तरह भगवान् ऋषभदेव का सच्चा पुत्र बनूं ऐसी अभिलाषा है। यों पश्चात्ताप रूपी पानी से | विषाद रूपी कीचड़ को साफ करके भरत महाराज ने बाहुबलि के पुत्र सोमयशा को राजगद्दी पर बिठाकर उसका | राज्याभिषेक किया। उस समय से लेकर आज तक सोमवंश चला आ रहा है, जिसकी सैंकड़ों शाखाएँ आज भी विद्यमान है; जो अनेक महापुरुषों को जन्म देने वाला हुआ है। इस प्रकार भरतेश बाहुबली मुनि को नमस्कार कर परिवार सहित | राज्य लक्ष्मी के समान अपनी अयोध्यानगरी में आये ।
बाहुबलि मुनि को दुष्कर तप करते एवं पूर्वजन्मोपार्जित कर्मों को नष्ट करते हुए एक वर्ष व्यतीत हो गया । | अमूढलक्ष्य वाले भगवान् ऋषभदेव ने बाहुबलि की अभिमानजनक स्थिती नष्ट होने का समय परिपक्व होने पर ब्राह्मी और सुंदरी को बाहुबलि के पास जाकर अभिमानमुक्त होने की प्रेरणा देने की आज्ञा दी। अतः भगवान् की आज्ञा से वे दोनों महासाध्वियाँ बाहुबलिमुनि के पास आकर कहने लगीं- 'हे महासत्त्व! स्वर्ण और पाषाण में समचित्त ! संगत्यागी 1. संवेग रंगशाला में दंड रत्न चक्रि के हाथ में आने का उल्लेख है।
2. अवसर्पिणीनी काल में अनीति का यहां से प्रारंभ हुआ।
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