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ऋषभ प्रभु का निर्वाण
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १० | भ्राता मुनिवर! हाथी के कंधे से नीचे उतरो; हाथी पर चढ़े रहना उचित नहीं है। इससे आपको केवलज्ञान कैसे प्राप्त होगा? नीचे लिंडियों की आग प्रज्वलित हो तो वृक्ष में नव पल्लव उगते नहीं। भ्रातामुनिवर! यदि आप संसार-समुद्र से तरना चाहते हैं तो आप स्वयं ही विचार करें और लोहे की नौका के समान इस हाथी पर से नीचे उतरें।' बाहुबलि मुनि विचार करने लगे-'मैं कौन-से हाथी पर चढ़ा हुआ हूँ। मेरा हाथी के साथ क्या वास्ता? वृक्ष पर बेलें चढ़ती हैं, वैसे हाथी मेरे शरीर से कैसे संपर्क कर सकता है? समद्र कदाचित अपनी मर्यादा छोड दे. पर्वत चलायमान हो जाय, फिर भी भगवान् की शिष्या साध्वी कभी असत्य नहीं बोल सकती। अरे हां! मैंने जान लिया, मैं तो इस मान रूपी हाथी पर चढ़ा हूं और इसीने मेरे केवलज्ञान रूपी ज्ञान-फल वाले विनयवृक्ष का नाश किया है। मेरे पूर्व-दीक्षित छोटे भाईयों को मैं कैसे वंदन करूँ? यही विचार मुझे अभिमान के हाथी पर चढ़ाये हुए था। धिक्कार है, ऐसे विचारों को। वे चाहे मुझसे उम्र में छोटे हों, मगर ज्ञान, दर्शन और चारित्र में तो वे मेरे से बड़े हैं, मेरे से पहले दीक्षित है। मेरा यह दुष्कृत (पापमय विचार) मिथ्या हो। अभी जाकर उन छोटे भाईयों को और उनके शिष्यों तक को परमाणु-समान बनकर मैं वंदन करूँ; यों विचार करते हुए ज्यों ही बाहुबलि मुनि ने भगवान् के पास जाने के लिए कदम उठाया; त्योंही उनको निर्वाणभवन के द्वार के समान केवलज्ञान प्राप्त हुआ। केवलज्ञान-लक्ष्मी से समस्त विश्व को वे हस्तामलकवत् देखने लगे। और भगवान् के पास जाकर केवलज्ञानियों की पर्षदा में जा बैठे। ___ इधर चौदह महारत्नों, चौसठ हजार अंतःपुर की स्त्रियों और नौ निधानों से संपन्न होने पर भी भरत चक्रवर्ती साम्राज्य-संपत्ति का उपयोग धर्म, अर्थ और काम का अविरुद्ध रूप से यथासमय सेवन करते हुए निर्लिप्त भाव से रहते थे। ___एक बार विहार करते हुए प्रभु अष्टापद पर्वत पर पधारें। प्रभु के चरणों में वंदन करने की उत्कंठा से भरत चक्रवर्ती वहाँ पहुँचे। देवों और दानवों के द्वारा पूजनीय विश्वपति भगवान् ऋषभदेव समवसरण में बैठे थे। भरतेश ने उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की और नमस्कार करके स्तुति करने लगे
'प्रभो! आप साक्षात् विश्वास की मूर्ति हैं। पूंजीभूत सदाचार है; समग्र जगत् के लिए एकांत प्रसाद रूप हैं। प्रत्यक्षज्ञान के पुंज रूप हैं। पुण्य के समूह-स्वरूप हैं। एक ही स्थान पर एकत्रीभूत देहधारी समस्त लोक के सर्वस्व हैं। संयमस्वरूप हैं। अकारण विश्वोपकारी हैं। जंगम शील के समान हैं। देहधारी होते हुए भी विदेह हैं। क्षमावान हैं, योग के रहस्य-समान हैं। जगत् के एकत्र पूंजीभूत वीर्य हैं। सिद्धि के सफल उपायभूत हैं। आप सर्वतोभद्र हैं। आप सर्वमंगल रूप हैं। मूर्तिमान मध्यस्थ हैं। एकत्रित तप, प्रशम सद्ज्ञान, योग आदि रूप हैं। साक्षात् विनय-रूप हैं। असाधारण सिद्धि के समान हैं। सकल शास्त्र-संपत्तियों के प्रति व्यापक हृदय-समान है। 'नमः स्वस्ति, स्वधा, स्वाहा, वषड् आदि मंत्रों | के अभिन्न अर्थ-समान है। विशुद्ध धर्ममूर्ति हैं, निर्माण के अतिशय-समान हैं। पिंडीभूत समग्र तप है। समग्र फलस्वरूप है। समस्त शाश्वतगुण-समूह है। गुणोत्कर्ष-स्वरूप मोक्ष-लक्ष्मी के निर्विघ्न उपाय हैं। प्रभावना के अद्वितीय स्थान हैं। मोक्ष के प्रतिबिंब स्वरूप हैं। विद्वानों के मानो कुलगृह हैं। समस्त आशीर्वादों के फलरूप हैं। आर्यों के श्रेष्ठ चरित्र का दर्शन करने के लिए श्रेष्ठ दर्पण के समान हैं। जगत के दृष्टा हैं। कूटस्थ प्रशम रूप हैं। दुःखियों के लिए शांति के द्वार के समान हैं। जीते जागते ब्रह्मचर्य हैं। उज्ज्वल पुण्य से उपार्जित जीवलोक के अपूर्व जीवित हैं। मृत्यु रूपी सिंह के मुख से खींचकर जगत् के जीवों को बचाने के लिए मानो लंबे हाथ किये हुए कृपालु हैं। ज्ञेय समुद्र में से ज्ञान रूपी मेरुपर्वत को मंथनदंड बनाकर मंथनदंड से मंथन करके निकाले हुए साक्षात् अमृत हैं। तथा जीवों की अमरणता के कारण-स्वरूप हैं। सारे विश्व को अभयदान देने वाले हैं। तीन लोक को आश्वासन देने वाले हैं। हे परेमश्वर! मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ। मुझ पर प्रसन्न हों। इस तरह त्रिलोकीनाथ श्री ऋषभदेव स्वामी के सामने एकाग्रचित्त होकर चिरकाल तक भरत महाराज ने उनकी उपासना की।
दीक्षा लेने के बाद एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व काल व्यतीत होने पर प्रभु ने दस हजार साधुओं के साथ अष्टापद-पर्वत पर मोक्ष प्राप्त किया। उस समय इंद्र आदि देवताओं ने प्रभु का निर्वाण-महोत्सव किया। महाशोकमग्न भरत को इंद्रमहाराज ने आश्वासन देकर समझाया। बाद में अष्टापद-पर्वत पर भरतमहाराज ने दूसरे अष्टापद के समान निषद्या नाम का रत्नजटित प्रासादमय-मंदिर बनवाया। उसमें भरत चक्रवर्ती ने श्री ऋषभदेव भगवान् के शरीर, वर्ण और संस्थान की आकृति से सुशोभित रत्नपाषाणमय प्रतिमा की स्थापना की। ऋषभदेव के साथ भावी २३ तीर्थंकरों
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