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भरत को केवलज्ञान एवं मरुदेवा माता का वर्णन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ११ की भी स्थापना की उसके बाद उन्होंने निन्यानवे भ्रात-मुनिवरों के भी रत्नपाषाणमय अनुपम स्तूप बनवाये। फिर अपनी राजधानी में आकर प्रजा का पालन करने के लिए कटिबद्ध होकर राज्य करने लगे। भरतेश भोगावली कर्म के फल स्वरूप उदय प्राप्त विविध भोगों का इंद्र के समान सदा उपभोग करते थे। | एक दिन वस्त्र. आभूषण आदि पहनकर सुसज्जित होने के लिए भरत चक्रवर्ती अपने शीशमहल में पहुंचे। उस समय वे अंतःपुर की अंगनाओं के बीच में ऐसे सुशोभित हो रहे थे, जैसे तारों के बीच में चंद्रमा सुशोभित होता है। शीशमहल में जब भरत नरेश शीशे के सामने खड़े होकर अपना चेहरा व अंग देखने लगे तो सारे अंगों में पहने हुए रत्नजटित आभूषण का प्रतिबिंब उसमें पड़ रहा था। अचानक उनके हाथ की एक अंगुली में से अंगूठी गिर पड़ी। उसके गिरने से निस्तेज चंद्रकला-सी शोभारहित अंगुलि दिखाई देने लगी। उनके मन में मंथन जागा। जब एक अंगूठी के निकाल देने से अंगुलि की शोभा कम हो गयी है तो आभूषणों के उतार देने से पता नहीं क्या होगा? यों सोचकर उन्होंने
अपने सारे आभूषण उतारकर अपना प्रतिबिंब देखा तो पत्तों से रहित वृक्ष के समान अपना शरीर शोभारहित जान पड़ा। | भरत चिंतन की गहरायी में डूब गये, कि 'क्या इस शरीर की शोभा आभूषणों से है? अतः इस शरीर को गहनों से सजाने की अपेक्षा अपनी आत्मा को ज्ञानादि गुण रूपी आभूषणों से क्यों न सजा लूं! वे आभूषण स्थायी होंगे, उनकी चमक कभी फीकी न होगी। विष्ठा आदि मलों से भरे हुए इस बाह्यस्रोत वाले शरीर को सजाने से क्या लाभ? यह तो अंदर से खोखली दीवार पर पलस्तर करके उसकी शोभा को बढ़ाने जैसा होगा। जैसे उत्पथ (ऊषर) भूमि में हुई वर्षा व्यर्थ ही जल को बिगाड़ती है वैसे ही कपूर, कस्तूरी आदि पदार्थों से शृंगारित यह शरीर भी सुंदर पदार्थों को दूषित ही करता है। इसलिए परिणाम में दुःखद विषय सुख साधनों की आसक्ति का त्याग करके मोक्षफल देने वाले तप-संयम का सेवन करने से ही यह शरीर सार्थक हो सकता है। इसी प्रकार इससे उत्तम फल प्राप्त किया जा सकता है।' इस प्रकार वैराग्यरस से सरोबार होकर भरत ने अनित्यभावना पर अनप्रेक्षा की। इस प्रकार के शक्लध्यान के योग से उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। यह है योग का अद्भुत सामर्थ्य!
उसी समय भक्तिमान इंद्र ने उन्हें रजोहरण आदि मुनिवेश अर्पण किया, बाद में वंदन किया और भरत के स्थान | पर उनके पुत्र आदित्ययशा को राजगद्दी पर बिठाया. तब से लेकर आज तक के राजाओं का सूर्यवंश चल रहा है।
यहाँ पर शंका पैदा होती है कि 'भरत चक्रवर्ती ने पूर्वजन्म में मुनि दीक्षा लेकर योग का अनुभव किया था और उस योगसमृद्धि के बल से अशुभ कर्म नष्ट करने में तथा कर्मक्लेश को मिटाने में योग के प्रभाव से उन्हें अधिक आयास नहीं करना पड़ा। इस दृष्टि से योग का माहात्म्य बताने हेतु भरत महाराजा का उदाहरण देना उचित है। परंतु जिस जीव ने जन्मांतर में दर्शनादि तीन रत्नों को प्राप्त नहीं किया और कर्मक्षय नहीं किया है, जिसने पूर्वजन्म में मनुष्यत्व प्राप्त नहीं किया, वह जीव अनंतकाल तक एकत्रित किये हुए कर्मों का समूल नाश कैसे कर सकता है? इसका उत्तर निम्नोक्त श्लोक द्वारा देते हैं।११। पूर्वमप्राप्तधर्माऽपि, परमानन्दनन्दिता । योगप्रभावतः प्रापः, [प्राप्त], मरुदेवा परं पदम् ॥११॥ अर्थ :- पहले किसी भी जन्म में धर्म-संपत्ति प्राप्त न करने पर भी योग के प्रभाव से परम आनंद से मुदित (प्रसन्न)
मरुदेवी माता ने परमपद मोक्ष प्राप्त किया है ।।११।। व्याख्या :- श्री मरुदेवी माता ने किसी भी जन्म में सद्धर्म प्राप्त नहीं किया था और न त्रसयोनि प्राप्त की थी और न मनुष्यत्व का ही अनुभव किया था। केवल मरुदेवी के भव में योगबल से समृद्ध शुक्लध्यान-रूपी महानल से दीर्घकाल संचित कर्म रूपी इंधन को जलाकर भस्म कर दिया था। कहा भी है-'जह मरुदेवा अच्चंतं थावरा सिद्धा' [आ. नि. १०३६] अर्थात् जैसे अकेली मरुदेवी ने दूसरी किसी गति में गये बिना व संसार-परिभ्रमण किये बिना सीधे अनंतकालिक स्थावर (अनादि निगोद) पर्याय से निकलकर मोक्ष प्राप्त कर लिया। मरुदेवी का चरित्र संक्षेप में पहले कहा गया है।।११।। ____ मरुदेवी माता ने पूर्वजन्म में तीव्र कर्म नहीं किये थे, इसलिए योग की थोड़ी-सी साधना से अनायास ही मोक्षपद |
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