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भरत द्वारा षट्खण्ड विजय
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १० यह भरतचक्रवर्ती है। इसे हमारे जैसे नहीं जीत सकते।' मेघकुमार की इस बात से निराश होकर म्लेच्छ लोग भरतेश की शरण में आये। सच हैं, 'अग्नि से प्रज्वलित के लिए अग्नि ही महौषधि होती है। उसके बाद योगी जैसे संसार | को जीत लेता है, वैसे ही सिंधुनदी से उत्तर में स्थित अजेय निष्कुट को स्वामी की आज्ञा से सेना ने जीत लिया। ऐरावत हाथी के समान मस्ती से प्रयाण करते हुए भरतेश क्षुद्रहिमवान पर्वत की दक्षिण तलहटी पहुंचा। वहाँ क्षुद्रहिमवत्कुमार देव के उद्देश्य से उन्होंने अट्ठम तप किया। 'तप कार्यसिद्धि का प्रथम मंगल है।' नृपशिरोमणि भरत ने अपने अट्ठमतप के पश्चात् हिमवान् पर्वत जाकर अपने रथ पर बैठे-बैठे ही रथ के अंतिम छोर से पर्वत पर तीन बार ताड़ना की। और पर्वत-शिखर पर ७२ योजन दूर स्वनामांकित बाण छोड़ा। बाण को देखते ही हिमवत्कुमार भरतेश के सामने स्वयं उपस्थित हुआ। उनकी आज्ञा मुकुट के समान शिरोधार्य की। फिर ऋषभपुत्र भरतेश ऋषभकूट पर्वत पहुंचे और निकट जाकर ऐरावत हाथी के दंतशूल की तरह रथ के अंतिम छोर से तीन बार खटखटाया; और उस पर्वत के पर्व के बीच में काकिणीरत्न से लिखा-'मैं अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के अंतिम भाग में उत्पन्न भारत का भरतचक्रवर्ती हूं। तत्पश्चात् वहां से लौटकर अपनी० छावनी में आकर भरतेश ने अट्ठम तप का पारणा किया। फिर चक्रवर्ती ने अपनी संपत्ति के अनुरूप क्षुद्र हिमवत्कुमार देव के आश्रित अट्ठाई महोत्सव किया। उसके बाद चक्रवर्ती भरत अपने चक्र के मार्ग का अनुसरण करते हुए महासेना के साथ चलते-चलते सिंधु और गंगा का अंतर दूर-सा करके वापस घूमे। और क्रमशः वैताढ्य-पर्वत के उत्तर की तलहटी के पास पहुंचे। वहां सैन्य-परिवार ने स्वस्थ होकर डेरा जमा दिया। कुछ ही दिनों बाद उन्होंने वहां के राज्याधिप विद्याधरों से अपने स्वामी का दंड मांगने हेतु बाण भेजा। दंड मांगने की बात से कुपित होकर दोनों विद्याधर वैताढ्य पर्वत से नीचे उतरकर अपने सैन्य के साथ भरतेश से युद्ध करने आये। उस समय भरत ने देखा कि विद्याधर सैन्य द्वारा मणिरत्न-निर्मित विमानों से छोड़े जाते हुए प्रक्षेपणास्त्रों से विद्युन्मय बना हुआ आकाश अनेक सूर्यों का-सा प्रकाशमान एवं प्रचंड दुंदुभिनाद से मेघगर्जनामय हो रहा है। साथ ही उन्होंने भरत को युद्ध के लिए ललकारा-'अय दंडार्थी! अगर हमसे दंड लेना है, तो आ जाओ मैदान में।' अपनी विशाल सेना युद्ध में झोंककर भरतेश ने भी उनके साथ एक साथ विविध युद्ध किये। युद्ध किये बिना जयश्री प्राप्त नहीं होती। आखिर १२ वर्ष तक युद्ध करने के बाद विद्याधरपति नमि-विनमि हार गये। अपनी पराजय के बाद वे हाथ जोड़कर नमस्कार करके | भरतराजा से कहने लगे-'जैसे सूर्य से बढ़कर कोई तेजस्वी नहीं होता, वायु से बढ़कर कोई वेगवान नहीं होता; मोक्ष से अधिक सुख कहीं भी नहीं होता; इसी प्रकार आप से बढ़कर और कौन शूरवीर है? हे भरतनरेश! आज आपको देखकर हमें साक्षात् ऋषभदेव भगवान् के ही मानो दर्शन हो गये हैं। स्वामिन्! अज्ञानता से हमने आपके साथ युद्ध किया। उसके लिए हमें क्षमा कीजिए। अब आप की आज्ञा मुकुट के समान हमारे सिर-माथे पर होगी। यह धन, भंडार, शरीर, पुत्र आदि सब आपका ही है। इस तरह भक्तिपूर्ण वचन कहकर अतिविनयी विनमि ने अपनी पुत्री (स्त्री रत्न) और नमि ने रत्नराशि अर्पित की और आज्ञा लेकर दोनों ने अपने पुत्रों को राज्याभिषिक्त कर वैराग्यभाव से भगवान् ऋषभदेव के पास जाकर दीक्षा अंगीकार की।
उसके बाद चक्ररत्न का अनुसरण करते हुए चलते-चलते वे गंगानदी के तट पर आये। सेनापति सुषेण ने गंगातटवर्ती उत्तर-प्रदेश जीत लिया। महान् आत्मा के लिए कौन-सी बात असाध्य है? राजा ने अट्ठम तप कर गंगादेवी की आराधना की, देवी ने भी दिव्य भेंट प्रस्तुत कर भरत का सत्कार किया। सारा गंगातट कमल की सुगंध से महक रहा था। भरतेश ने गंगातट पर ही अपने महल का-सा पटभवन बनवाया और वहाँ निवास करने लगा। भरत का कामदेव-सा रूप लावण्य देखकर गंगानदी को रोमांच हो उठा। मौक्तिक आभूषणों एवं केले के अंदर की पतली झिल्ली के समान बारीक वस्त्रों से सुसज्जित होकर चंद्रमुखी गंगादेवी भरतेश के पास पहुंची। जलप्रवाहमय विचित्र रूप धारण करके अंगविन्यास एवं हावभाव करती हुई गंगादेवी ने नरेश से प्रेमगद्गद् स्वर में प्रार्थना की। तत्पश्चात् काम-क्रीड़ा करने की अभिलाषा से वह उन्हें अपने भवन में ले गयी। वहां भरतनरेश के साथ विविध भोग-विलास में चांदी से 1. कहीं एक नाम मिटाकर अपना नाम लिखते समय भरतेश के आंख में आंसु आये कि मैं एक चक्रवर्ती का नाम मिटा रहा हूं। भविष्य में मेरा नाम भी कोई मिटायेगा। ऐसा उल्लेख भी है।
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