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भरत द्वारा षट्खण्डविजय
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १०
| वैताढ्यकुमार देव को उद्देश्य करके भरत राजा ने अट्ठम तप किया। अवधिज्ञान से उसे ज्ञात हुआ तो अपनी शक्ति के | अनुसार भेंट लेकर पहुंचा और भरत की आज्ञाधीनता स्वीकार की । उसे विदा करके राजा ने अट्ठम तप का पारणा किया | और उसके नाम का यथाविधि अष्टाह्निका महोत्सव किया। तत्पश्चात् कांति में सूर्य के समान राजा भरत तमिस्रा नाम की गुफा के पास आया और वही पास में ही सैन्य का पड़ाव डाला । कृतमाल नाम के देव को लक्ष्य करके वहाँ उन्होंने अट्ठम तप किया। उस देव का आसन कंपित होने से वह वहाँ आया और राजा की अधीनता स्वीकार की । उसे भी विदा (रवाना) करके भरतेश ने अट्ठम तप का पारणा किया और उसका अष्टाह्निका महोत्सव किया। भरत की आज्ञा से सुषेण नाम के सेनापति ने चर्मरत्न की सहायता से सिंधुनदी को पार कर दक्षिणसिंधु के अधिपति के निष्कुट को उसी समय | जीत लिया। वैताढ्य पर्वत में वज्र-कपाट से अवरुद्ध तमिस्रा गुफा को खोलने के लिए सुषेण सेनापति को ऋषभपुत्र भरत ने आज्ञा दी। सुषेण स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य कर तमिस्रा गुफा के निकटवर्ती प्रदेश में गया। उसके अधिष्ठायक | कृतमालदेव का स्मरण करने हेतु विशुद्धबुद्धि सुषेण ने पौषधशाला में अट्ठम किया । अट्ठम तप के अंत में स्नान कर | बाह्य - आभ्यंतर शौच से निवृत्त होकर उसने पवित्र वस्त्र और विविध आभूषण धारण किये। उसके बाद होमकुंड के | समान जलती अग्नि वाली धूपदानी में स्वार्थ-साधना की आहुति की तरह मुष्टियों से धूप डालता हुआ भंडार के द्वार की तरह गुफा के द्वार की ओर सावधानी गया और जल्दी से गुफाद्वार खोलने को उद्यत हुआ। उसने कपाट युगल देखते नेता को नमन की तरह नमस्कार किया; अन्यथा अंदर प्रवेश कैसे करता ? फिर गुफा के द्वार पर आठ-आठ
| मंगलों का आलेखन कर अठाई - महोत्सव किया। तत्पश्चात् अपने गौरव के अनुरूप सेनापति ने सर्व-शत्रुओं के नाशक वज्र की तरह दंडरत्न ग्रहण किया और वक्रग्रह के समान कुछ कदम पीछे हटकर दंडरत्न से दरवाजे को तीन बार प्रताड़ित किया । अतः जैसे वज्र पर्वत के पंख काट देता है, वैसे ही दंडरत्न से तड़ तड़ करते हुए दोनों कपाट अलग| अलग हो गये। गुफाद्वार के खुलते ही सुषेण प्रसन्नता से उछल पड़ा। उसने भरत-सम्राट् के पास आकर नमस्कार|पूर्वक निवेदन किया- 'राजन्! जैसे अधिक तप से यति के मुक्ति द्वार खुल जाते हैं, वैसे ही आपके प्रभाव से आज गुफा का द्वार अर्गला रहित होकर खुल गया है। यह सुनते ही ऐरावण - हाथी पर इंद्र की तरह भरतनरेश गंधहस्ती पर सवार हुए और गुफा द्वार की ओर चले। राजा ने गुफा के अंधकार को दूर करने के लिए पूर्वाचल पर सूर्य के समान, हाथी के दाहिने कुंभस्थल पर मणिरत्न रखा और उसके प्रकाश में एक एक योजन तक दोनों तरफ देखते हुए बादलों में सूर्य | की तरह भरतनरेश भी गुफा में प्रवेश कर रहे थे। उनके पीछे-पीछे सेना चल रही थी और आगे-आगे चल रहा था- चक्र । भरतेश के सेवकों ने गुफा में अंधकार-निवारण के लिए एक-एक योजन पर दोनों तरफ गोमूत्रिका के आकार | वाले मंडल काकिणीरत्न से आलेखित किये, जो सूर्यमंडल के समान उद्योत करते थे। इस प्रकार से प्रकाशमान ४९ | मंडलों के प्रकाश से चक्रवर्ती भरत की सेना सुखपूर्वक आगे बढ़ रही थी । रास्ते में गुफा में राजा ने उन्मन्ना और निमन्ना | नाम की दो नदियाँ देखी। जिनमें से एक नदी में पत्थर भी तैर रहा था; जबकि दूसरी नदी में तूंबा भी डूब रहा था। | अतिकठिनता से पार कर सकने योग्य नदियों को उन्होंने वर्द्धकी - रत्न से पैदल चलने योग्य पगडंडी नदी में बनाकर | दोनों नदियाँ पार की; और गुफा से इस प्रकार बाहर निकले जैसे महामेघमंडल से सूर्य निकलता है। वहाँ से भरतेश | ने भरतक्षेत्र के उत्तराखंड में प्रवेश किया। जैसे इंद्र दानवों के साथ युद्ध करता है, वैसे ही भरतेश ने वहां म्लेच्छों के | साथ युद्ध करके उन्हें पराजित किया । म्लेच्छों ने भरतचक्रवर्ती को जीतने के उद्देश्य से मेघकुमार आदि अपने कुल - | देवताओं की उपासना की। उसके प्रभाव से प्रलय काल के समान चारों तरफ मूसलधार वृष्टि होने लगी । भरतमहाराजा ने उससे बचाव के लिए नीचे बारह योजन तक चर्मरत्न बिछा दिया और उसके ऊपर रखवाया छत्ररत्न; उसके | बीच में अपनी सेना रखी । वहां अंधड़ से हुए महा- अंधकार को नष्ट करने के लिए पूर्वाचल पर सूर्य के समान छत्रदंड | पर मणिरत्न रखवाया । चर्म - रत्न और छत्ररत्न दोनों रत्न - संपुट तैरते हुए अंडे के समान प्रतीत हो रहे थे; लोक में ब्रह्मांड की कल्पना भी शायद इसी कारण प्रारंभ हुई है। भरतचक्रवर्ती के पास गृहपतिरत्न एक ऐसा था, जिसके प्रभाव | से सुबह बोया हुआ अनाज शाम को ऊगकर तैयार हो जाता था। इस कारण भरतचक्रवर्ती अपने काफिले के प्रत्येक | व्यक्ति को भोजन मुहैया कर देता था। इधर वर्षा करते-करते थककर म्लेच्छों के दुष्ट देवता मेघकुमार ने उनसे कहा
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