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ऋषभ प्रभु की देशना, मरुदेवा का मोक्ष, शासन स्थापना
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १० में वन में हिमपात होने से मालती के स्तंभ की तरह परिक्लेश-अवस्था का सदा अनुभव करता है और गर्मी में सूर्य की अतिभयंकर उष्ण किरणों से हाथी के समान अधिक संताप अनुभव करता है। इस तरह मेरा वनवासी पुत्र सभी ऋतुओं में सदैव अकेला, आश्रय रहित, तुच्छ जन की तरह कष्ट उठा रहा है। अतः आज तीन लोक के स्वामित्व को प्राप्त हुए अपने पुत्र की समृद्धि देखना हो तो चलो।' यों कहकर साक्षात् लक्ष्मी के समान परम प्रसन्न मातामही को हाथी पर बिठाकर सोने, हीरे एवं माणिक्य के आभूषणों से विभूषित होकर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना के साथ भरत ने समवसरण की ओर प्रस्थान किया। सैन्य के साथ जाते हुए भरत राजा ने दूर से ही सामने आभूषणों को एकत्रित किये हुए जंगम तोरण के समान एक रत्नध्वज देखा। देखते ही भरत ने माता मरुदेवी से कहा- 'दादी मां! देखो, यह सामने देवताओं द्वारा तैयार किया हुआ प्रभु का समवसरण! यहां पिताजी के चरण-कमलों की सेवा में उत्सव मनाने के लिए
आये हए देवों के जय-जयनाद के नारे सनायी दे रहे है। और यह मालकोश आदि ग्राम रागो से पवित्र एवं कर्णामृत |संपन्न भगवान की देशना सुनायी दे रही है मोर, सारस, क्रौंच, हंस आदि पक्षियों की आवाज से भी अधिक मधुर स्वर वाली भगवान् की वाणी, विस्मय पूर्वक एकाग्रता से कान देकर सुनो। दादी मां! मेरे पिताजी की मेघ-ध्वनि के समान गंभीर योजनगामिनी वाणी सुनकर मन बादल के समान बलवान होकर उसी तरफ दौड़ता है।' मरुदेवी माता ने संसार| तारक, निर्वात दीपक के समान स्थिर, त्रिलोकीनाथ की गंभीर वाणी हर्ष से सुनी तो उनके नेत्रपटल आनंदाश्रुजल से धुलकर साफ हो गये। उनकी आंखों से दिखायी देने लगा। उन्होंने अतिशययुक्त तीर्थंकर ऋषभदेव की ऋद्धि देखी। उसे देखने से उनका मोह समाप्त हो गया। आनंद की स्थिरता से उनके कर्म खत्म हो गये। उसी समय उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। और उसी समय आयु पूर्ण कर मोक्ष में पधार गयी। इस अवसर्पिणी-काल में मरुदेवी माता सर्व प्रथम मुक्त-सिद्ध हुई। उसके बाद देवों ने उनके पार्थिव शरीर को समुद्र में बहा दिया और वहीं निर्वाण-महोत्सव किया। दादी-मां का मोक्ष हुआ जानकर भरत राजा को हर्ष और शोक दोनों उसी तरह साथ-साथ हुए, जैसे शरत्कालीन बादलों की छाया और सूर्य का ताप दोनों हों।
तदनंतर भरतचक्रवर्ती राजचिह्नों का परित्यागकर सपरिवार पैदल चलकर समवसरण में प्रविष्ट हुए। चारों . देवनिकायों से घिरे हुए प्रभु को दृष्टि रूपी चकोर से चंद्रमा की तरह भरत राजा ने टकटकी लगाकर देखा और भगवान् को तीन बार प्रदक्षिणा करके नमस्कार किया। फिर मस्तक पर अंजलि करके वह इस तरह प्रभु की स्तुति करने लगा
'हे संपूर्ण जगत् के नाथ! आपकी जय हो; संपूर्ण विश्व को अभयदान देने वाले! आपकी जय हो; हे प्रथम जिनेश्वर! आपकी जय हो, हे संसार के तारक! आपकी जय हो! इस अवसर्पिणीकाल के भव्यजीव रूपी कमल को प्रतिबोध करने के लिए सूर्यसमान प्रभो! आज आपके दर्शन होने से अंधकार का नाश हुआ है, प्रभात का उदय हुआ है। हे नाथ! निर्मली के समान भव्यजीवों के मन रूपी जल को निर्मल करने वाली आपकी वाणी है। करुणा के क्षीरसमुद्र! आपके शासन रूपी महारथ में जो चढ़ गया, उसके लिए फिर लोकाग्र मोक्ष दूर नहीं रहता। देव! अकारण जगबंधु के साक्षात् दर्शन जिस भूमि पर हो जाते हैं, उस संसार को भी हम लोकाग्र मोक्ष से बढ़कर समझते हैं। स्वामिन्! आपके दर्शन से महानंदरस में स्थिर हुई आँखों में संसार में भी मोक्ष-सुख के आस्वादन का-सा अनुभव होता है। हे अभयदाता नाथ! रागद्वेष-कषाय रूपी शत्रुओं से घिरे हुए जगत् का उद्धार आप ही से होगा। हे नाथ! आप स्वयं तत्त्व को समझते हैं। आप ही मोक्षमार्ग बतलाते हैं। स्वयं विश्व का रक्षण करते हैं। इसलिए प्रभो! अब आपको छोड़कर मैं और किसकी स्तुति करूं?' इस तरह भरत-चक्रवर्ती ने प्रभु की स्तुति करके दोनों कर्णपुटों को प्याला बनाकर देशना के रूप में अमृतवाणी का पान किया। उस समय ऋषभसेन आदि चौरासी गणधरों को भी श्रीऋषभदेव भगवान् ने दीक्षा दी। उसके बाद ब्राह्मी और भरत-चक्रवर्ती के पांच पुत्रों तथा सात सौ पौत्रों को भगवान् ने भागवती दीक्षा दी। इस तरह उस समय प्रभु ने चतुर्विध श्री संघ की स्थापना की। भगवान् ऋषभदेव के चतुर्विध संघ में पुंडरीक आदि साधु, ब्राह्मी आदि साध्वियाँ श्रेयांस आदि श्रावक और सुंदरी आदि श्राविकाएँ प्रमुख हुई। उस समय से लेकर आज तक उसी तरह यह संघ-व्यवस्था चलती रही है। तत्पश्चात् प्रभु ने भव्यजीवों को प्रतिबोध देने के लिए शिष्य परिवार सहित अन्यत्र विहार किया। | भरतनरेश भी प्रभु को नमस्कार कर अयोध्या लौट गये।
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