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धरणेन्द्र का विद्या देना, आहार ग्रहण
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १० वर्षाकण को छोड़कर दूसरे के पास जल की याचना नहीं करता। अस्तु, भरतादि का कल्याण हो! आप हमारी चिंता न करें। इन्हीं स्वामी से हमें जो कुछ मिलना होगा, वह मिल जायेगा। हमें दूसरे से क्या लेना-देना है?' उनका निःस्पृहतापूर्ण प्रत्युत्तर सुनकर धरणेन्द्र विस्मित और प्रसन्न होकर बोले-'मैं भी इन्हीं स्वामी का सेवक पातालपति धरणेन्द्र हूँ। आप दोनों की यह प्रतिज्ञा बहुत उत्तम है। आपको इन्हीं स्वामी की सेवा करनी चाहिए। लो, मैं आप दोनों की स्वामिभक्ति से प्रसन्न होकर स्वामिसेवा के फल के रूप में विद्याधरों का ऐश्वर्य प्रदान करता हूं। ऐसा यह आपको स्वामी की सेवा से ही मिला है। ऐसा मत सोचना कि यह और किसी से मिला है।' यों दोनों को समझाकर धरणेन्द्र ने उन्हें प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ सिखाई।' इससे वे दोनों प्रसन्न होकर स्वामी की आज्ञा लेकर पचास योजन विस्तृत एवं पच्चीस योजन ऊँचे वैताढ्य पर्वत पर आये; जहाँ नमिकुमार ने उक्त विद्याबल से दक्षिणश्रेणि के मध्य भूभाग में दस-दस योजन विस्तृत ५० नगर बसाये। इसी तरह विद्याधरपति विनमिकुमार ने उत्तरश्रेणि में दस-दस योजन विस्तृत |६० नगरियां बसायी। वहां चिरकाल तक वे दोनों विद्याधरों के राजा चक्रवर्ती बनकर सुखपूर्वक राज्य करते रहे। सच है-'स्वामीसेवा निष्फल नहीं जाती।'
ऋषभदेव भगवान् को मौन एवं निराहार रहते हुए एक वर्ष हो गया था। वे कल्पनीय आहार की शोध में विचरण करते-करते पारणे की इच्छा से हस्तिनापुर पधारें। उस समय सोमयशा के पुत्र श्रेयांसकुमार ने स्वप्न देखा कि 'मैंने काले बने हुए मेरुपर्वत को अमृतकलशों से प्रक्षालित कर उज्ज्वल बनाया।' सुबुद्धि नामक सेठ ने भी स्वप्न देखा कि सूर्य से गिरी हुई हजारों किरणे श्रेयांस कुमार ने अपने यहाँ पुनः स्थापित की, जिससे वह सूर्य पुनः तेजस्वी हो उठा। सोमयशा राजा ने भी स्वप्न देखा कि 'एक राजा बहुत से शत्रुओं से घिरा हुआ था, परंतु श्रेयांस की सहायता से उसकी जीत हुई।' तीनों ने अपना-अपना स्वप्न राजसभा में एक दूसरे के सामने निवेदन किया। परंतु उन्हें अपने-अपने स्वप्न के फल का ज्ञान न होने से वे अपने-अपने स्थान पर लौट आये। उसी समय उस स्वप्न-फल का प्रत्यक्ष निर्णय देने के लिए ही मानो भगवान् श्रेयांस के यहां भिक्षार्थ पधारें। चंद्रमा को देखकर जैसे समुद्र उछलने लगता है, वैसे ही भगवान् को देखकर कल्याण भाजन श्रेयांस हर्ष से नाच उठा। श्रेयांसकुमार ने स्वामी के दर्शन पाते ही मन में ऊहापोह किया, इससे उसे पहले के खोये हुए निधान के समान जातिस्मरणज्ञान पैदा हुआ। पूर्वजन्म की वे सब बातें चलचित्र की तरह उसके सामने आने लगी कि पूर्वजन्म में वे वज्रनाभ चक्रवर्ती थे, तब वह इनका सारथी था। इन्होंने उस समय दीक्षा भी ग्रहण की थी। अतः बुद्धिशाली श्रेयांसकुमार को निर्दोष भिक्षा देने की विधि का स्मरण हो आया। उसने प्रभु को पारणे में लेने योग्य प्रासुक इक्षु-रस दिया। रस बहुत था तो भी भगवान् के कर पात्र में वह समा गया। उस समय श्रेयांस के हृदय में हर्ष नहीं समाया। वही रस मानो अंजलि में जमकर स्थिर होकर ऊँची शिखा वाला बनकर आकाश में (उच्चलोक में) ले जाने वाला बना क्योंकि महापुरुषों का प्रभाव अचिंत्य शक्तिशाली होता है। प्रभ ने ईक्षरस: असुरों तथा मनुष्यों ने भी नेत्रों से प्रभु के दर्शनामृत से पारणा किया। आकाश में देवों ने मेघ के समान दुंदुभि-नाद और जलवृष्टि के समान रत्नों और पुष्पों की वृष्टि की। इसके पश्चात् प्रभु विहार करके बाहुबलि राजा की राजधानी तक्षशिला | पधारे। नगर के बाहर उद्यान में वे एक रात्रि तक ध्यानस्थ रहे।
__ बाहुबली ने विचार किया कि 'मैं सुबह होते ही स्वामी के दर्शन करूंगा तथा और लोगों को दर्शन कराकर नेत्र | पवित्र कराऊंगा। कब प्रातःकाल हो और कब मैं प्रभु के दर्शनार्थ पहुंचूं।' इसी चिंता ही चिंता में रात्रि एक महीने-सी प्रतीत हुई। प्रातःकाल जब बाहुबली वहां पहुंचा तो प्रभु अन्यत्र विहार कर गये। चंद्र रहित आकाश के समान उद्यान को निस्तेज देखकर मन में विचार किया कि जैसे ऊबड़-खाबड़ जमीन पर बीज नष्ट हो जाता है, वैसे ही मेरे हृदय के मनोरथ नष्ट हो गये। धिक्कार है मुझ प्रमादी को।' यों कहकर बाहुबली आत्म-निंदा करने लगा। जिस स्थान पर प्रभु ध्यानस्थ खड़े थे, उस स्थान पर बाहुबली ने रत्नों की एक वेदिका और सूर्य के समान हजार आंखों वाला तेजस्वी धर्मचक्र बनाया। विविध अभिग्रह धारण करते हुए स्वामी आर्यदेश की ही तरह अधार्मिक म्लेच्छदेश में भी विचरण करते रहे। योगिजन सदैव समभावी होते हैं। प्रभु के विचरण करने से वहाँ के पापकर्मी लोग भी और अधिक दृढ़धर्मी 1. कहीं भगवान के मुख में धरणेन्द्र ने प्रवेश कर विद्याएँ दी ऐसा उल्लेख भी है। 2. बाहुबली ने जोर से बांग पुकारने का उल्लेख भी आता है।
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