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राज्य व्यवस्था वर्णन - लोकांतिक देवों द्वारा विनति
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १० उस नगरी का निर्माण कर सरलस्वभावी कुबेर ने अक्षय रत्न, वस्त्र और धन-धान्य से उसे भर दी। हीरें, नीलम | और वैडूर्यरत्न से बनाये हुए महल की विविध रंग की किरणों से आकाश में बिना दीवार के ही चित्र बन गये थे। उसके किले पर तेजस्वी माणिक्य के बनाये हुए कंगूरे खेचरों के लिए अनायास दर्पण का काम करते थे। उस नगरी के घर|घर में धन आ गया। मोतियों के स्वस्तिक बना दिये थे, जिससे बालिकाएँ स्वेच्छा से कंकड़ों की तरह खेलती थी। उस नगरी के उद्यान में लगे हुए ऊँचे वृक्षों की चोटी से टकराकर खेचरियों के विमान थोड़ी देर के लिए पक्षियों के घोंसले से लगते थे। उस नगरी के बाजारों में और महलों में बड़े-बड़े ऊँचे रत्नों के ढेर को देखकर रोहणाचल पर्वत भी कीचड़ के ढेर जैसा लगता था। वहाँ गृहवापिकाएँ जल-क्रीड़ा में एकाग्र बनी स्त्रियों के टूटे हुए हार के मोतियों के कारण ताम्रपर्णी की तरह शोभायमान होती थी। नगरी में बड़े-बड़े धनाढ्य रहते थे। ऐसा प्रतीत होता था, मानो उनमें से किसी एकाध के पास वणिक्पुत्र कुबेर भी व्यवसाय करने के लिए गया हो। चंद्रकांतमणि की बनी महलों की दीवारों में से रात को झरते हुए जल से मार्ग की धूल जमा दी जाती थी। उसी नगरी में अमृतोपम मधुर जल की लाखों की संख्या में बावड़ी, कुंए सरोवर, नवीन अमृतकुंड, 'नागलोक' को भी मात कर रहे थे।
राज्य-व्यवस्था का वर्णन – राजा ऋषभ उस नगरी को विभूषित करते हुए अपनी प्रजा का पुत्रवत् पालन करते थे। लोकोपकार की दृष्टि से ऋषभ राजा ने पाँच शिल्पकलाएँ, जो प्रत्येक २०-२० प्रकार की थीं, प्रजा को सिखायी। राज्य की स्थिरता के लिए गाय, घोड़े, हाथी आदि एकत्रित करके उन्हें पालतू बनाये और साम-दाम आदि उपायों वाली सजनीति भी बतायी। अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को बहत्तर कलाएँ सिखायी। भरत ने भी अपने भाईयों, अपने पुत्रों एवं अन्य पुरुषों को वे कलाएँ सिखायी। ऋषभ राजा ने बाहुबलि को हाथी, घोड़े, स्त्री और पुरुष के विविध लक्षण सिखाये। 'अपनी पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अठारह लिपियां और पुत्री सुंदरी को बांये हाथ से गणित विद्या सिखायी। उसके बाद वर्ण-व्यवस्था करके न्यायमार्ग प्रवर्तित किया। इस तरह नाभिपुत्र श्री ऋषभदेव ने अपनी जिंदगी के तिरासी लाख | पूर्व वर्ष पूर्ण किये।
एक बार वैशाख के महीने में परिवार के आग्रह से राजा ऋषभ कामदेव के द्वारा अपने लिये बनाये गये आवास . के तुल्य उद्यान में पधारें। वहाँ विकसित आम्र-मंजरी देखकर प्रभु आनंदमग्न हुए। भौरे गुनगुनाकर मानो प्रभु का स्वागत कर रहे थे। उद्यान में मानो वसंतलक्ष्मी प्रकट हो चुकी थी। कोयल पंचमस्वर से गाकर मानो नाटक की सूत्रधार बनकर प्रस्तावना कर रही थी। वायु लताओं को नृत्य करा रही थी। मंद, सुगंध मलयानिल से मानो पुष्पों के वासगृह में बैठे, पुष्प के आभूषणों से भूषित, प्रभु पुष्पदंडयुक्त हस्त वाले लगते थे। वृक्ष की डालियों के आसपास कुतूहलवश फूल चुनने के लिए एकत्रित हुए नारीसमूह को देखकर लगता था मानो ये पेड़ स्त्री रूपी फलों से युक्त हों। इस प्रकार उस | उद्यान में प्रभु ऐसे सुशोभित होने लगे मानो साक्षात् वसंत हो। वहीं अनेक बालक आनंद से खेल रहे थे, उन्हें देखकर प्रभु ने विचार किया-क्या दोगुंदक देवों की क्रीड़ा इसी प्रकार होती होगी? उस समय प्रभु अवधिज्ञान के प्रयोग से अनुत्तर देवलोक के पूर्वजन्म भुक्त सुखों पर चिंतन करते हुए आगे से आगे के देवलोक के ज्ञात-सुखों के अनुभव की गहराई में उतर गये। प्रभु के मोहबंधन नष्ट हो गये थे, इसलिए एक ही झटके में विचारों को नया मोड़ दिया कि इन स्वर्गीय विषयसुखों में वही फंसता है, जो अपना आत्महित नहीं समझता। धिक्कार है उस आत्मा को, जो इस संसार | रूपी कुए में रेहट की घंटिकाओं की तरह कर्मवश विविध ऊँचे-नीचे स्थानों में चढ़ाव-उतार की क्रिया करता रहता है।' यों विचारसागर में गोते लगाते हुए प्रभु का मन संसार से पराङ्मुख हो गया। इतने में तो सारस्वत आदि लोकांतिक देव प्रभु की सेवा में आ पहुँचे। मस्तक पर अंजलि करके उन्होंने नमस्कार किया और प्रभु से प्रार्थना की-'प्रभो! अब तीर्थ-प्रवर्तन कीजिए।' उन देवों के जाने के बाद नंदन नामक उद्यान से नगरी में लौटकर प्रभु ने राजाओं को बुलाया। एक समारोह का आयोजन करके सभी राजाओं के समक्ष बड़े पुत्र भरत का राज्याभिषेक किया। उसके बाद प्रभु ने बाहबलि आदि पत्रों को राज्य वितरित किया। फिर संवत्सरी (एक वर्षभर तक) दान देकर पथ्वी जिससे कहीं पर भी 'मुझे दो' इस प्रकार के याचना के दीन वचन न रहें। सभी इंद्रों के आसन कंपायमान होने से वे वहाँ आये और जैसे वृष्टि पर्वत पर पानी बरसाती है, वैसे ही उन्होंने प्रभु का अभिषेक किया। पुष्पमाला, सुगंधित
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