________________
अंगोपांगो का एवं विवाह वर्णन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १० | आवर्तकार था। लिंग का आवरण कोश के समान था। उनकी कमर लंबी, मोटी, मांसल (भरी हुई) विशाल व कठोर | थी। कटि का मध्यभाग पतला होने से ऐसा मालूम होता था इन्द्र के वज्र का मध्यभाग हो। उनकी नाभि गंभीर नदी के आवर्त की तरह सुशोभित हो रही थी। उनकी कुक्षि स्निग्ध, मांसल, कोमल, सरल और समान थी। स्वर्णशिला के समान विशाल और उन्नत उनका वक्षःस्थल ऐसा मालूम होता था, मानो श्री वत्सरत्न की पीठिका हो अथवा लक्ष्मीदेवी के क्रीड़ा करने की वेदिका हो। उनके कंधे बैल के कंधों के समान उन्नत मजबूत व पुष्ट थे और दोनों कंधों के नीचे उनकी कांख अल्प रोम वाली दुर्गंध, पसीनों और मल से रहित थी। सर्प के फन के समान पुष्ट एवं घुटने तक लंबी दो बाहें ऐसी लगती थीं, मानो चंचल लक्ष्मी को वश में करने के लिए नागपाश हो। प्रभु की हथेली आम्रवृक्ष के नवीन | पल्लव के समान लाल, बिना श्रम किये कठोर, पसीने से रहित, छिद्ररहित और उष्ण थी। उसके मध्यभाग में दं
धनुष, मत्सय, श्रीवत्स, वज्र, अंकुश, ध्वज, कलश, चामर, छत्र, शंख, कमल, समुद्र, मेरुपर्वत, मगरमच्छ, वृषभ, सिंह, घोड़ा, रथ, स्वस्तिक, दिग्गज, प्रासाद, तोरण आदि लक्षण और चिह्न थे। लाल, सरल एवं रक्तिम नखों से युक्त उनके अंगूठे और अंगुलियाँ ऐसी लगती थीं, मानो कल्पवृक्ष के सिरे पर माणिक्य-रूप पुष्पों के अंकुर हों। स्वामी के अंगूठे पर पूर्ण यव (जौ) प्रकट रूप से ऐसे शोभायमान थे, मानो वे उनके यश रूपी उत्तम-अश्व को विशेष पुष्ट कर रहे हों। प्रभु की अंगुलि के ऊर्ध्वभाग में दक्षिणावर्त शंख की सी सर्वसंपत्ति-दायिनी रेखाएं थीं। हाथ के मूल में मणिबंध पर अंकित तीन रेखाएँ तीन जगत को कष्टों से उबारना सूचित कर रही थी। उनका कंठ गोल, लंबा, तीन रेखाओं से पवित्र, मधुर एवं गंभीर आवाज वाला और शंख के सदृश लगता था। प्रभु का निर्मल, गोल और तेजस्वी मुख ऐसा लगता था, मानो लांछन-रहित दूसरा चंद्रमा हो। मांस से पुष्ट, कोमल और चमकीले प्रभु के दोनों गाल ऐसे लगते थे, मानो सरस्वती और लक्ष्मी के साथ-साथ रहने वाले दो स्वर्ण-दर्पण हों। अपने भीतर के आवर्त के कारण कंधे तक लटकते हुए प्रभु के दोनों कान ऐसे शोभायमान हो रहे थे, मानो प्रभु के मुख की प्रभा रूपी दो सीप हों, जो समुद्र | के किनारे पड़ी हों। प्रभु के दोनों ओठ बिंबफल के समान थे। उनके बत्तीस उज्ज्वल दांत मोगरे के फूल के समान सुशोभित थे। क्रमशः ऊंची व विस्तारयुक्त उनकी नाक बांस के समान लगती थी। प्रभु की ठुड्डी न बहुत लंबी थी और न बहुत छोटी, अपितु सम, मांस परिपूर्ण, गोल एवं कोमल थी। तथा उनकी दाढ़ी-मूंछे घने काले केशों में भरावदार, चमकीली, काली एवं कोमल थी। प्रभु की जीभ कल्पवृक्ष के नये पैदा हुए पल्लव के समान लाल और कोमल थी। वह न तो अत्यंत लंबी थी और न स्थूल। वह बारह अंग के अर्थको कहने वाली जीभ थी। बीच में काली और उज्ज्वल तथा दोनों सिरों पर लाल एवं कान के आखिरी सिरे तक लंबी प्रभु की आंखें, ऐसी मालूम होती थीं, मानो वे नीलस्फटिक और माणिक्यरत्न से निर्मित हो। उनकी अंजन के समान श्याम पलकें ऐसी मालुम होती थी, मानों विकस्वर कमलों पर भौरे बैठे हों। प्रभु की श्याम और वक्र भौंहे दृष्टि रूपी वापि के किनारे उत्पन्न हुई लता की-सी शोभा दे रही थी। प्रभु का भाल-स्थल अष्टमी के चंद्रमा के समान विशाल, कोमल, गोल, सुहावना और कठोर था। छत्र के समान उन्नत एवं गोलाकार प्रभु का मस्तक तीनों लोकों के स्वामीत्व को सुचित करता था। मस्तक के मध्य भाग को सहारा देने वाली प्रभु के मस्तक पर रखी हुई पगड़ी मस्तक पर रखे हुए कलश की-सी शोभा बढ़ा रही थी। प्रभु के मस्तक के बाल भौरे के समान श्याम, धुंघराले, कोमल व चिकने थे, वे यमुनानदी की तरंगो के समान प्रतीत हो रहे थे। गोरोचन के गर्भ के समान गोरी और चिकनी, त्रिलोकीनाथ के शरीर की चमड़ी (त्वचा) ऐसी प्रतीत हो रही थी, मानो वह सोने के तरलरस से लिस हो। स्वामी के शरीर पर कमलतंतु से भी पतले, कोमल भौरे के रंग के सदृश श्याम अद्वितीय रोम उगे हुए थे। प्रभु का श्वास विकसित कमल की सुगंधी के समान दुर्गध-रहित था और मांस लाल था, और खून-गाय के दूध की धारा के समान सफेद। इस प्रकार रत्नों के कारण जैसे रत्नाकर सेव्य हो जाता है, वैसे ही असाधारण विविध गुणरत्नों से गुणरत्नाकर बने हुए प्रभु किसके लिए सेव्य न थे?
ऋषभकुमार के विवाह का वर्णन-एक बार बाल्यावस्था के कारण सहज रूप से क्रीड़ा करता-करता कोई यौगलिक बालक एक ताड़ के पेड़ के नीचे आ गया। जैसे एरंड के पेड़ पर अचानक बिजली गिर गयी हो, वैसे ही दुर्दैव से उस यौगलिक के सिर पर उस समय एक बड़ा-सा ताल-फल गिर पड़ा। इस कारण वह तुरंत अकाल के मरण
20