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ऋषभराजा का राज्यभिषेक
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १०
| शरण हो गया। उस बालक के मर जाने से उसके साथ वाली लड़की अपने जोड़े का अकस्मात् वियोग हो जाने से हिरणी के समान किंकर्त्तव्य विमूढ़ हो गयी। अकाल में वज्रपात के समान उसकी कुमृत्यु से दूसरे युगलिये भी मूर्छित और किंकर्तव्य विमूढ़ हो गये। वे लोग पुरुष-रहित उस कन्या को आगे करके नाभिकुलकर से परामर्श लेने आये कि "अब | इस कन्या का क्या किया जाय?" उन्होंने सुझाव दिया- 'यह कन्या वृषभकुमार की धर्मपत्नी बनेगी।' यह सुनकर सबके | चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी। जब उस कन्या को स्वीकार कर लिया तो उसका मुखचंद्र भी चंद्रिका के समान खिल उठा; | उसके नेत्र भी कमल के समान विकसित हो उठे । पूर्वभव में प्रभु द्वारा बांधे हुए शुभकार्यों के उदय रूप सुफल जानकर | शुभ मुहूर्त देखकर एक दिन देव परिवार सहित, इन्द्र प्रभु का विवाह करने हेतु आये । देवताओं ने उसी समय सुवर्णमय | स्तंभ पर शोभायमान रत्नपुत्तलियों वाला, प्रवेशद्वार और बाहर जाने के अनेक द्वार वाला भव्य मंडप तैयार किया। वह मंडप श्वेत और दिव्य वस्त्र के चंद्रोवे से इतना भव्य लगता था मानो मंडप की शोभा निहारने की इच्छा से आकाशगंगा | आकाश से धरती पर उतर आयी हो। चारों दिशाओं में वृक्षों के पत्तों की कतार से बने तोरण ऐसे बांधे गये थे, मानों | कामदेव द्वारा निर्मित धनुष हों। आकाश में बहुत ऊंचाई पर पहुंचे हुए रति-निधान से पंक्तिबद्ध चार रत्न- कलश चारों | दिशाओं में देवियों द्वारा स्थापित किये गये थे। मंडप के द्वार पर मेघ सुगंधित वस्त्रों की वर्षा करते थे और देवियां मंडप के मध्यभाग की भूमि पर चंदनरस का लेप कर रही थीं और बाजे बजा रही थीं तथा मंगलगीत गा रही थीं । देवांगनाएँ प्रतिध्वनि के रूप में उसी तरह गाने और बजाने लगीं। इंद्रमहाराज ने सुमंगला और सुनंदा कन्या के साथ प्रभु के पाणिग्रहण का महोत्सव संपन्न किया ।
उसके बाद देवों द्वारा मांगल्य की हुई सुमंगलादेवी ने भरत और ब्राह्मी के जोड़े को जन्म दिया। तीनों लोक को आनंदित करने वाली सुनंदादेवी ने महाबलशाली बाहुबलि और अतिसुंदर रूप वाली सुंदरी को युगलरूप में जन्म दिया। | इसके बाद भी सुमंगला ने उनचास, बलवान पुरुष युगलों को जन्म दिया। सभी संतान साक्षात् देवों के रूपों को मात करने वाली थी।
ऋषभकुमार का राज्याभिषेक एक दिन सभी युगलिए एकत्रित होकर हाथ ऊँचे करके नाभिकुलकर से पुकार | करने लगे- 'अन्याय हुआ, अन्याय हुआ।' अब तो अकार्य करने वाले लोग हकार, मकार और धिक्कार नाम की सुंदर नीतियों को भी नहीं मानते।' यह सुनकर नाभि कुलकर ने युगलियों से कहा- 'इस अकार्य से तुम्हारी रक्षा ऋषभ | करेगा। अतः अब उसकी आज्ञानुसार चलो।' उस समय नाभिकुलकर की आज्ञा से राज्य की स्थिति प्रशस्त करने हेतु | तीन ज्ञानधारी प्रभु ने उन्हें शिक्षा दी कि 'मर्यादाभंग करने वाले अपराधी को अगर कोई रोक सकता है, तो राजा ही । | अतः उसे ऊँचे आसन पर बिठाकर उसका जल से अभिषेक करना चाहिए ।' प्रभु की बात सुनकर उनके कहने के अनुसार सभी युगलिए पत्तों के दोनें बनाकर उसमें जल लेने के लिए जलाशय गये। उस समय इंद्र का आसन | चलायमान हुआ । उससे अवधिज्ञान से जाना कि भगवान् के राज्याभिषेक का समय हो गया है। अतः इंद्रमहाराज वहां | आये। उसने प्रभु को रत्नजटित सिंहासन पर बिठाकर राज्याभिषेक किया। मुकुट आदि आभूषणों से उन्हें सुसज्जित | किया। इधर हाथ जोड़कर और कमलपत्र के दोनों में अपने मन के समान स्वच्छ जल लेकर युगलिए भी पहुंचे। उस | समय अभिषिक्त एवं वस्त्राभूषणों से सुसज्जित मुकुट सिर पर धारण किये हुए सिंहासनासीन प्रभु ऐसे प्रतीत हो रहे थे | मानो उदयाचल पर्वत पर सूर्य बिराजमान हो । शुभ्र वस्त्रों से वे आकाश में शरद् ऋतु के मेघ के से सुशोभित हो रहे थे। के दोनों ओर शरद् ऋतु के नवनीत एवं हंस के समान मनोहर उज्ज्वल चामर ढूल रहे थे। विनीता नगरी का निर्माण एवं वर्णन अभिषेक किये हुए प्रभु को देखकर युगलिये आश्चर्य में पड़ गये। उन विनीत युगलियों ने यह सोचकर कि ऐसे अलंकृत भगवान् के मस्तक पर जल डालना योग्य नहीं है अतः प्रभु के | चरणकमलों पर जल डाल दिया। यह देखकर इंद्रमहाराज ने खुश होकर नौ योजन चौड़ी बारह योजन लंबी विनीता | नगरी बनाने की कुबेरदेव को आज्ञा दी। इंद्र वहाँ से अपने स्थान पर लौट आये। उधर कुबेर ने भी माणिक्य - मुकुट | के समान रत्नमय और धरती पर अजेय विनीता नगरी बसायी, जो बाद में अयोध्या नाम से प्रसिद्ध हुई ।
प्रभु
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