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ऋषभदेव की दीक्षा, नमि-विनमि का आना
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १० अंगराग और देवों द्वारा स्थापित सुगंधित पुष्प समूह से प्रभु ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो अपने धवल यश से शोभायमान हो रहे हों। विविध वस्त्र पहनकर तथा रत्नजटित आभूषणों से सुसज्जित होकर प्रभु संध्या समय के बादल
माकाश के समान या तारागण से प्रकाशमान आकाश के समान शोभायमान होने लगे। इंद्र ने आकाश में दुंदुभि बजायी, तो ऐसा मालूम होने लगा, मानो अपनी आत्मा में से उछलता हुआ आनंद जगत् को बांट रहा हो। ऊर्ध्वगति का मार्ग जगत् को बतलाने के बहाने देवों, दानवों और मनुष्यों द्वारा उठाई गयी शिविका में प्रभु का दीक्षानिष्क्रमण-महोत्सव किया; जिसे निर्निमेष दृष्टि से देखकर दर्शकों ने अपने नेत्रों को कृतार्थ किया।
वहाँ से सिद्धार्थ नामक उद्यान में पहुंचकर प्रभु ने कषायों की तरह पुष्पों और आभूषणों का सर्वथा त्याग करके चार मुष्टि से बालों का लोच किया, बाद में पाँचवी मुष्टि से लोच करने लगे, तब इंद्र ने प्रार्थना की-'प्रभो! आपके स्वर्णकांतिमय अवर्णनीय केश की जुल्फें शोभा देती हैं, इसलिए इन्हें ऐसे ही रहने दीजिए।' यह सुनकर भगवान् ने उन्हें वैसे ही रहने दीं। सौधर्म इंद्र ने अपने उत्तरासंग वस्त्र में प्रभु के बालों को ग्रहण किये और उन्हें क्षीरसमुद्र में | डालकर वापिस आये। सभा में होने वाले कोलाहल को नाटकाचार्य की तरह इंद्र ने मुष्टि एवं चपत का ईशारा करके बंद कराया। 'मैं यावज्जीव सर्वसावद्य (सदोष) प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ,' यों बोलकर प्रभु मोक्ष-मार्ग में प्रयाण करने के लिए उत्तम चारित्र रूपी रथ पर आरूढ़ हुए। उस समय प्रभु को मनःपर्यायज्ञान प्राप्त हुआ, जिससे वे सभी जीवों के मनोगत द्रव्यों को जान सकते थे। अपने स्वामी का अनुसरण करने वाले चार हजार राजाओं ने भी
पथ को अंगीकार किया; क्योंकि कलीन पुरुषों का यही आचार है। इसके बाद सभी इंद्र अपनेअपने स्थान को लौट गये। जैसे युथपति हाथियों को साथ लिये हए चलता है, वैसे ही भगवान उन चार हजार मनियों को साथ लिये हुए विचरण करने लगे। उस समय भद्रजन प्रभु को भिक्षा देने की विधि से अनभिज्ञ थे, इसलिए जब वे घरों में भिक्षा के लिए जाते तो भावुक नर-नारी मोती, रत्न, हाथी, घोड़े आदि वस्तुएँ उनके समक्ष हाजिर करते थे। सच है, सरलता भी कभी तिरस्कार करने वाली बन जाती है।' भोले भावुक लोगों की सरलता एवं अनभिज्ञता के कारण प्रभु को अनुकूल भिक्षा न मिलने के कारण वे उन अकल्पनीय वस्तुओं का स्वीकार नहीं करते थे, बल्कि वापिस लौट आते थे। प्रभु अदीनभाव से मौन रहकर इस परिषह को सहन कर रहे थे। परंतु प्रभु की मौनावलंबन-युक्त इस कठोर एवं असह्य चर्या को देखकर उनके साथ विचरण करने वाले उनके ४००० क्षुधापीड़ित साधु उन्हें छोड़कर चले गये। वे सबके सब तापसवेष धारण करके वन्य फल-फूल खाकर अपना निर्वाह करने लगे। भगवान् जैसे सत्त्वशाली अन्य कौन हो सकते हैं? इस प्रकार कष्टों से घबराकर उन्होंने मोक्ष का राजमार्ग छोड़कर उत्पथ पर पैर रख दिया था।
इधर प्रभु की आज्ञा से गये हुए कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि ध्यानस्थ प्रभु के पास आये और दोनों ने प्रभु को नमस्कार करके उनसे प्रार्थना की-'प्रभो! हमारा स्वामी आपके सिवाय और कोई नहीं है; अतः आप हमें हमारा राज्य वापिस दीजिए।' प्रभु के मौन होने से उन दोनों को कुछ भी जवाब नहीं दिया। निःस्पृह, निर्ममत्व महापुरुष इस जगत् के प्रपंच से दूर ही रहते है। प्रभु को मौन देखकर दोनों उसी दिन से हाथ में नंगी तलवार लिये स्वामी की सेवा में पहरेदार बनकर रहने लगे। वे ऐसे मालूम होते थे, जैसे मेरुपर्वत के इर्दगिर्द सूर्य और चंद्रमा हों। उस समय प्रभु के वंदनार्थ धरणेन्द्र आये। उन्होंने उन दोनों से पूछा-तुम्हारे यहाँ आने का क्या प्रयोजन है?' उत्तर में उन्होंने कहा-'यह हमारे स्वामी हैं। हम इनके सेवक हैं। जब ये राजा थे तो हमें इन्होंने किसी कार्यवश बाहर भेजा था। पीछे से इन्होंने अपने सभी पुत्रों को राज्य बांट दिया। हम वापिस लौटकर आये, तब तक तो ये मुनि बन गये। अब हमें यह साफ दिखायी देता है कि इन्होंने सर्वस्व त्याग दिया है तो हमें राज्य कहाँ से दे देगें? 'इनके पास अब कुछ भी है या नहीं?' इसकी हमें जरा भी चिंता नहीं है। सेवक को तो हमेशा स्वामी की सेवा करनी होती है। इसलिए हम इनकी सेवा में तैनात है।' धरणेन्द्र ने कहा-'यह स्वामी तो ममता-रहित और अपरिग्रही है। अच्छा होता, आप भरतजी के पास जाकर राज्य की मांग करते। ये साधु आपको क्या दे सकेगे?' इस पर उन्होंने जवाब दिया-'विश्व के स्वामी प्रभु के मिल जाने पर अब हम दूसरे किसी को भी अपना स्वामी नहीं बनाना चाहते। कल्पवृक्ष मिल जाने पर करीर (कर) वृक्ष का आश्रय कौन लेना चाहेगा? परमेश्वर को छोड़कर हम दूसरे किसी के पास मांगने नहीं जाते। चातक
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