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प्रभु को केवलज्ञान, भरत का चिंतन
__ योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १० बन गये। इस तरह विहार करते हुए प्रभु को एक हजार वर्ष हो चुके, विचरण करते हुए एक बार स्वामी पुरिमताल (अयोध्या) नगर में पधारें। नगर के ईशानकोण में शकटाल नामक उपवन था। वहां वटवृक्ष के नीचे, अट्ठमतप करके कायोत्सर्ग (ध्यान) में स्थिर रहे। प्रभु क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर अपूर्वकरण के क्रम से निर्मल शुक्लध्यान के मध्य में आ पहुंचे और तभी उन्होंने अपने घातिकर्मों को बादलों की तरह छिन्न-भिन्न कर दिया, जिससे स्वामी के आत्म प्रदेश में केवलज्ञान रूपी सूर्य प्रकट हुआ।
उस समय आकाश मार्ग में अत्यंत भीड़ हो जाने के कारण विमान परस्पर टकराने लगे। इस प्रकार अनेक देवों के साथ चौसठ इंद्र वहां आये। भूमि-प्रमार्जन करने वाले वायुकुमार देवों ने प्रभु के समवसरण का स्थान साफ करके समतल बना दिया। मेघकुमार देवों ने वहाँ सुगंधित जल की वृष्टि की, जिससे वहाँ की धूल जम गयी। देवों ने छह ऋतुओं के फूल पृथ्वी पर घुटनों तक बिछा दिये। सच है, पूज्यों का संसर्ग पूजा के लिए ही होता है। वह्निकुमारदेवों ने समवसरण की भूमि को सुगंधित धूप से सुगंधमय बनाकर सारे आकाश को भी सुरभित कर दिया। इंद्र और देवों द्वारा रंगबिरंगी रत्मकांति से सुसज्जित समवसरण की रचना ऐसी लग रही थी, मानो एक साथ सैकड़ों इंद्रधनुष हो गये हों। भवनपति, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों ने चांदी, सोने और माणिक्य के तीन किले वहां बनाये। किले पर फहराती हुई पताकाएँ मानों जीवों को सूचित कर रही थी कि यह मार्ग स्वर्ग का है, यह मार्ग मोक्ष का है। किले पर विद्याधरियों की रत्ननिर्मित पुतलियाँ सुशोभित हो रही थी। देवताओं ने समवसरण में यह सोचकर उनकाप्रवेश नहीं करवाया कि शायद समावेश अंदर नहीं हो सकेगा। मुग्ध देवांगनाएँ हर्षित होकर चिरकाल तक माणिक्य के कंगूरे देखती रहीं। चार प्रकार के चार गवाक्षों की तरह प्रत्येक किले के चार दरवाजे सुशोभित हो रहे थे। देवों ने समवसरण की भूमि पर तीन कोस ऊँचा एक कल्पवृक्ष बनाया, जो मानो सम्यग्दर्शन आदि तीन रत्नों को सूचित कर रहा था। उसी वृक्ष के नीचे पूर्वदिशा में श्रेष्ठ पादपीठ से युक्त रत्नजटित सिंहासन बनाया; जो स्वर्ग की-सी शोभा दे रहा था। पूर्वदिशा से प्रभु ने प्रवेश किया और 'नमो तित्थस्स' कहकर तीर्थ (संघ) को नमस्कार किया। पूर्वाचल पर अंधकार को दूर करने वाले | सूर्य के समान प्रभु पूर्वदिशा में स्थापित उस सिंहासन पर विराजमान हुए। उसी समय देवों ने शेष तीन दिशाओं में भगवान् का प्रतिबिंब सिंहासन पर स्थापित किया। प्रभु के ऊपर पूर्णिमा के चंद्रमंडल की शोभा का हरण करने वाले एवं तीन लोक के स्वामित्व के चिह्नरूप तीन छत्र सुशोभित हो रहे थे। प्रभु के सन्मुख रत्नमय इंद्रध्वज ऐसा शोभायमान
हो रहा था, मानो इंद्र एक हाथ ऊँचा किये हुए यह सूचित कर रहा हो कि भगवान् ही एकमात्र हमारे स्वामी है। अतीव | अद्भुत प्रभा समूह से युक्त धर्मचक्र प्रभु के आगे ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो वह केवलज्ञानियों पर प्रभु का चक्रवर्तित्व सूचित कर रहा हो। गंगानदी की श्वेत तरंगों के समान उज्ज्वल एवं मनोहर दो चामर प्रभु के मुख-कमल की ओर दौड़ते हुए हंस के समान प्रतीत हो रहे थे। प्रभु के शरीर के पीछे प्रकट हुए भामंडल के समक्ष सूर्यमंडल भी जुगनू के बच्चे की तरह प्रतीत हो रहा था। आकाश में बज रही दुंदुभि मेघगर्जना के समान गंभीर थी। वह अपनी प्रतिध्वनि से दशों दिशाओं को गूंजा रही थी। देवों ने उस समय चारों ओर नीचे डुंटी वाले पंखुड़ियों सहित फूलों की वर्षा की। वह ऐसी मालूम होती थी मानो कामदेव ने शक्ति प्राप्त लोगों पर अपने दूसरे अस्त्रों का त्याग किया हो। भगवान् ने तीनों लोकों का उपकार (उद्धार) करने वाली पैतीस गुणों से युक्त वाणी से धर्मदेशना आरंभ की।
उसी समय एक दूत ने आकर भरत राजा से निवेदन किया-'स्वामिन्! ऋषभ प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है।' दूसरे दूत ने आकर सूचना दी-'आपकी आयुधशाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ है।' 'एक ओर पिताजी को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, दूसरी ओर मुझे चक्ररत्न की प्राप्ति हुई इन दोनों में से पहले किसकी पूजा करूं? भरतनृप क्षणभर इसी उधेड़बुन में पड़े रहे। दूसरे ही क्षण उन्होंने स्पष्ट चिंतन किया कि कहाँ विश्व के जीवों को अभयदान देने वाले पिताजी और कहां जीवों का संहार करने वाला यह चक्र! यों निश्चय कर उन्होंने अपने परिवार को प्रभु की पूजा के लिए चलने की आज्ञा दे दी। पुत्र पर आने वाले परिषहों के समाचार सुन-सुनकर निरंतर दुःखाश्रु बहाने के कारण नेत्ररोगी बनी हई मातामही मरुदेवी के पास आकर भरत ने नमन किया और प्रार्थना की-दादी-मां! आप मझे सदा उपालंभ दिया करती थी कि मेरा सुकुमार पुत्र चौमासे में पद्मवन की तरह जल का उपद्रव सहन करता है और शर्दी
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