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ऋषभकुमार का जन्म, ऋषभकुमार के अंगोपांगों एवं विवाह का वर्णन
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक १० व्याख्या :- भरत चक्रवर्ती का वह प्रसंग इस प्रकार हैभरत चक्रवर्ती का आद्योपांत विस्तृत आख्यान :
___ ऋषभदेव प्रभु का जन्म एवं जन्माभिषेक - इस अवसर्पिणीकाल के सुषम-सुषमा नामक चार कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण वाले पहले आरे के बीतने के बाद, तीन कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण वाले, सुषम नामक दूसरे आरे के बीतने के बाद और दो कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण वाले सुषम-दुःषम नामक तीसरे आरे का पल्योपम के आठवें भाग न्यून समय व्यतीत हो जाने के बाद दक्षिणार्द्ध भरत में १. विमलवाहन, २. चक्षुष्मान, ३. यशस्वी, ४. अभिचन्द्र, | ५. प्रसेनजित्, ६. मरुदेव और ७. नाभि नाम के क्रमशः सात कुलकर हुए। उनमें नाभिकुलकर की पत्नी तीन जगत्
को उत्तमशील से पवित्र करने वाली मरुदेवी थी। जब तीसरे आरे के चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष साढ़े आठ महीने शेष रहे तब सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यव कर मरुदेवी माता की कुक्षि में चौदह महास्वप्नों को सूचित करते हुए प्रथम जिनेश्वर उत्पन्न हुए। उस समय उन १४ स्वप्नों के अर्थ को नाभिराजा और मरुदेवी यथार्थ रूप से नहीं जान सके। अतः इन्द्र ने आकर हर्ष पूर्वक उनके अर्थ सुनाये। उसके बाद अषाढ वदि चौथ के शुभ दिन में ऋषभदेव का जन्म हुआ। छप्पन दिक्कुमारियों ने आकर प्रसवकर्म किया। इन्द्र ने प्रभु को मेरुपर्वत पर ले जाकर अपनी गोद में बिठाया और तीर्थजल से प्रभु का तथा हर्षाश्रुजल से अपना अभिषेक किया। बाद में इन्द्र ने प्रभु को ले जाकर उनकी माता को सौंप दिया। प्रभु का सभी धात्रीकर्म देवियों ने किया। प्रभु की दाहिनी जंघा में वृषभ का आकार-लंछन देखकर माता-पिता ने प्रसन्नता पूर्वक उनका नाम ऋषभ रखा। प्रभु ऋषभ चंद्र किरण के समान अतिशय आनंद उत्पन्न करते हए एवं दिव्य आहार से पोषण पाते हुए क्रमशः बढ़ने लगे।
प्रभु के वंश का नामकरण – एक बार इन्द्र प्रभु की सेवा में उपस्थित हुए। तब विचार करने लगे कि आदिनाथ ऋषभदेव भगवान् के वंश का क्या नाम रखा जाय? प्रभु ने अवधिज्ञान से इन्द्र का विचार जानकर उसके हाथ से इक्षुदंड लेने के लिए हाथी की सूंड-सा अपना हाथ लंबा किया। इन्द्र ने प्रभु को इक्षु अर्पण करके नमस्कार किया और तभी प्रभु के वंश का नाम इक्ष्वाकु रखा।
प्रभ के अंगों का अलंकारिक वर्णन - बाल्यकाल बिताकर मध्याह्न के सर्य के समान प्रभ ने यौवनवय में पदार्पण किया। यौवनवय से प्रभु के दोनों पैरों के तलुए समतल, लाल और कमल के समान कोमल थे। उष्ण व कंपन-रहित होने से उनमें पसीना नहीं होता था। प्रभु के चरणों में चक्र. अभिषेकयक्त लक्ष्मीदेवी. हाथी. पुष्प..
पुष्प, पुष्पमाला, अंकुश एवं ध्वज के चिह्न थे। मानो ये चरणों में नमन करने वालों के दुःखों को मिटाने के लिए ही हों। लक्ष्मीदेवी के क्रीड़ागृह के समान भगवान् के दोनों चरणतलों में शंख, कलश, मत्स्य और स्वस्तिक सुशोभित हो रहे थे। स्वामी के अंगूठे भरावदार, पुष्ट, गोल और ऊँचे थे, वे सर्प के फन के समान, वत्स के समान श्रीवत्सचिह्न से युक्त थे। प्रभु के चरणकमल की अंगुलियाँ छिद्ररहित सीधी, वायु प्रवेश रहित होने से निष्कंप, चमकती दीपशिखा के समान तथा कमल की पंखुड़ियों के समान थीं। प्रभु के चरणों की ऊँगलियों के नीचे नंद्यावर्त ऐसे सुशोभित होते थे कि जमीन पर पड़ने वाले प्रतिबिम्ब धर्मप्रतिष्ठा के कारणभूत प्रतीत हो रहे थे। अंगुली के पर्व बावड़ी के समान शोभा देते थे। वे ऐसे मालूम होते थे, मानो विश्व-प्रभु के विश्व-लक्ष्मी के साथ होने वाले विवाह के लिए जो बोये गये हो। प्रभु के चरण-कमल की एड़ी कंद के समान गोल व प्रमाणोपेत लंबी-चौड़ी थी। और उनके नख ऐसे प्रतीत होते थे, मानो, अंगूठों और अँगुलियों रूपी सों की मस्तक-मणियाँ हो। प्रभु के पैर के गट्टे सुवर्णकमल के अर्द्धविकसित दल की तरह सुशोभित थे। प्रभु के दोनों पैर ऊपर से नीचे तक क्रमशः कछुए के समान उन्नत थे। उनमें नसें नहीं दिखती थीं। उनके रोम अपनी कांति से चमकते थे। जगत्पति की जां हिरनी की जांघों के समान क्रमशः गोल, गौरवर्ण की एवं मांस से ऐसी पुष्ट थी कि अंदर की हडियाँ मांस से लिपटी होने के कारण दिखती नहीं थीं। उनकी कोमल, चमकीली पुष्ट जंघाएँ केले के स्तंभ की तरह शोभायमान थीं। गोलाकार मांसल घुटने ऐसे लगते थे, मानो रूई से भरे तकिये में दर्पण जड़ा हुआ हो। स्वामी के दो वृषण (अंडकोष) हाथी के वृषण के समान गुप्त थे। कुलीन घोड़े के लिंग के समान प्रभु का पुरुषचिह्न अति गुप्त था, तथा उसमें नसें जरा भी नहीं दिखती थीं। और वह नीचा, ऊँचा-लंबा या ढीला नहीं था, अपितु सरल, कोमल, रोम-रहित, गोल, सुगंधित जननेन्द्रिययुक्त, शीतल, प्रदक्षिणावर्त-शंखसदृश, एकधारयुक्त, बीभत्सतारहित,
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