________________
चारणलब्धि और उसके विविध प्रकार
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश श्लोक ९ इसी प्रकार मनोबली, वचनबली, कायबली भी एक प्रकार के लब्धिधारी होते हैं। जिसका निर्मल मन मतिज्ञानावरणीय और वीर्यान्तराय कर्म के अतिशय क्षयोपशम की विशेषता से अंतर्मुहूर्त में सारभूत तत्त्व उद्धृत करके सारे श्रुत-समुद्र में अवगाहन करने में समर्थ हो, वह साधक मनोबली-लब्धिमान कहलाता है। जिसका वचनबल एक अंतर्मुहूर्त में सारी श्रुतवस्तु को बोलने में समर्थ हो, वह वाग्बली-लब्धिमान कहलाता है; अथवा पद, वाक्य और अलंकार-सहित वचनों का उच्चारण करते समय जिसकी वाणी का प्रवाह अखंड अस्खलित चलता रहे, कंठ में जरा भी रुकावट न आये, वह भी वागबली कहलाता है। वीतरायकर्म के क्षयोपशम से जिसमें असाधारण कायबल-योग प्रकट हो गया हो कि कायोत्सर्ग में चिरकाल तक खड़े रहने पर भी थकावट और बेचेनी न हो, वह कायबलीलब्धिमान कहलाता है। उदाहरणार्थ-बाहुबलि मुनि जैसे एक वर्ष तक कायोत्सर्ग-प्रतिमा धारण करके खड़े रहे थे, वे कायबली थे। इसी प्रकार क्षीरलब्धि, मधुलब्धि और अमृतलब्धि वाले भी योग होते हैं। जिनके पात्र में पड़ा हुआ खराब अन्न भी दूध, मधु, घी और अमृत के रस के समान बनकर शक्तिवर्द्धक हो जाता है, अथवा वाचिक, शारीरिक और मानसिक दुःख प्राप्त हुए आत्माओं को खीर आदि की तरह जो आनंददायक होते हैं; वे क्रमशः क्षीरास्रव, मध्वास्रव, सर्पिरास्रव और अमृतास्रव लब्धि वाले कहलाते हैं। वे दो प्रकार के होते हैं एक होते हैं, अक्षीण-महानसलब्धिमान
और दूसरे होते हैं, अक्षीणमहालयलब्धिधर। असाधारण अंतराय कर्म के क्षयोपशम होने से जिनके पात्र में दिया हुआ अल्प आहार भी गौतमस्वामी की तरह अनेकों को दे दिया जाय, फिर भी समाप्त नहीं होता; वे अक्षीणमहानसलब्धिमान कहलाते हैं। जिस परिमित भूमिभाग में असंख्यात देव, तिथंच और मनुष्य सपरिवार खचाखच भरे हों, बैठने की सुविधा न हो, वहां अक्षीणमहालय-लब्धिधारी के उपस्थित होते ही इतनी जगह हो जाती है कि तीर्थकर के समवसरण की तरह सभी लोग सुखपूर्वक बैठ सकते हैं। इसी तरह प्राज्ञश्रमण आदि साधकों में महाप्रज्ञा आदि लब्धियां भी प्राप्त होनी बतायी है; जिनके प्रभाव से वे एक ही इन्द्रिय से सभी इन्द्रियों के विषयों की जानकारी कर सकते हैं; ऐसी महाऋद्धि संभिन्न-स्रोतलब्धि कहलाती है ।।८।। और भी कई लब्धियाँ बताते हैं
।९। चारणाशीविषावधि-मन:-पर्यायसम्पदः । योगकल्पद्रुमस्यैताः, विकासिकुसुमश्रियः ॥९।। अर्थ :- चारणविद्या, आशीविषलब्धि, अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान की संपदाएं; ये सब योग रूपी कल्पवृक्ष |
की ही विकसित पुष्पश्री है। व्याख्या :- जिस लब्धि के प्रभाव से जल, स्थल या नभ में निराबाध गति हो सके, उस अतिशय शक्ति को चारणलब्धि कहते हैं। जिस लब्धि के प्रभाव से साधक दूसरे पर अपकार (शाप) या उपकार (वरदान) करने में समर्थ हो; वह आशीविषलब्धि कहलाती है। जिस लब्धि के प्रभाव से इंद्रियों से अज्ञेय परोक्ष रूपी द्रव्य का ज्ञान इंद्रियों की सहायता के बिना ही प्रत्यक्ष किया जा सके, उसे अवधिज्ञानलब्धि कहते हैं। दूसरे के मनोद्रव्य के पर्यायों को प्रत्यक्ष देखने की शक्ति, जिस लब्धि के प्रभाव से हो जाय, उसे मनःपर्यायज्ञानलब्धि कहते हैं। ये सारी लब्धियां योग रूपी कल्पवृक्ष के ही पुष्प समान है। इनसे फल की प्राप्ति हो तो केवलज्ञान अथवा मोक्षप्राप्ति होती है, जिसे हम भरतचक्रर्ती और मरुदेवी के उदाहरण से आगे बताएँगे।
चारणलब्धि दो प्रकार की होती है-जंघाचारणलब्धि और विद्याचारणलब्धि। ये दोनों लब्धियां मुनियों को ही प्राप्त होती है। उनमें जंघाचरण-लब्धिधारी मुनि सुगमता से उड़कर एक कदम में सीधे रुचकद्वीप में पहुंच जाते हैं; वापिस आते समय भी रुचकद्वीप से एक कदम में उड़कर नंदीश्वरद्वीप में आ जाते हैं और दूसरे कदम में जहाँ से गये हों, वहीं मूल स्थान पर वापस आ जाते हैं, और वे ऊर्ध्वगति से उड़कर एक कदम में मेरुपर्वत के शिखर पर ठहरकर पांडुवन में पहुंच जाते हैं; वहां से भी वापस आते समय एक कदम में नंदनवन में आ जाते हैं और दूसरे कदम में उड़कर जहाँ से पहले उड़े थे, उसी मूल स्थान पर आ जाते हैं। विद्याचारणलब्धिधर मुनि तो एक कदम से उड़कर मानुषोत्तर पर्वत पर पहुंच जाते हैं और दूसरे कदम से नंदीश्वरद्वीप में जाते हैं, वहाँ से एक ही कदम में उड़कर, जहाँ से गये थे, वहीं | वापस आ जाते है। कई चारणलब्धिधर मुनि तिर्यग्गति में भी उस क्रम से ऊर्ध्व गमनागमन कर सकते हैं।
17